Thursday 22 January, 2009

अपेक्षा बहुत कुछ सिखाती है...


यह एक बेहतरीन सामग्री है। हमने सोचा आप सब भी पढ़े। यह पत्र अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने पुत्र के शिक्षक के नाम लिखा था। जरा देखिए एक पिता की अपेक्षा कि वह अपने पुत्र को कैसे सींचना चाहता है। यह सामग्री पथप्रदर्शक सिद्ध हो सकती है। हे शिक्षक! मैं जानता हूं कि उसे सीखना है यह कि सभी लोग न्यायप्रिय नहीं होते, सभी लोग अच्छे नहीं होते। किंतु उसे यह भी सिखाएं कि जहां बदमाश होते हैं वहां एक नायक भी होता है। यह कि हर स्वार्थी नेता के जवाब में एक समर्पित नेता भी होता है। उसे बताइए कि जहां एक दुश्मन होता है वहां एक दोस्त भी होता है। अगर आप कर सकते हैं तो उसे ईष्र्या से बाहर निकालें, उसे खामोश हंसी का रहस्य बताएं। उसे यह सीखने दें कि गुंडई करने वाले बहुत जल्द चरण स्पर्श करते हैं। अगर पढ़ा सकें तो उसे किताबों के आश्चर्य के बारे में पढ़ाएं लेकिन उसे इतना समय भी दें कि वह आसमान में उड़ती चिडिय़ां के, धूप में उड़ती मधुमक्खियों के और हरे पर्वतों पर खिले फूलों के शाश्वत रहस्यों के बारे में सोच सके। उसे स्कूल में यह भी सिखाएं कि नकल करने से ज्यादा सम्मानजनक है फेल हो जाना। उसे अपने विचार में विश्वास करना सिखाएं तब भी जब सभी उसे गलत बताएं। उसे विनम्र व्यक्ति से विनम्र और कठोर व्यक्ति से कठोर व्यवहार करना सिखाएं। मेरे बेटे को ऐसी ताकत दें कि वह भीड़ का हिस्सा न बने जहां हर कोई खेमे में शामिल होने में लगा है। उसे सिखाएं कि वह सबकी सुने लेकिन उसे यह भी सिखाएं कि वह जो कुछ भी सुने उसे अच्छाई की छननी पर छाने और उसके बाद जो अच्छी चीज बचे उसे ही ग्रहण करे। अगर आप उसे सिखा सकते हैं तो सिखाएं कि जब दुखी हों तो कैसे वह हंस सके, उसे सिखाएं कि आंसू आना शर्म की बात नहीं होती। उसे सिखाएं कि निंदकों का कैसे मजाक उड़ाया जाए और ज्यादा मिठास से कैसे सावधान रहा जाए। उसे सिखाएं कि अपनी बल और बुद्धि को ऊंचे से ऊंचे दाम पर बेचे पर अपने हृदय और आत्मा का सौदा कभी न करे। उसे सिखाएं कि एक चीखती भीड़ के आगे अपने कान बंद कर ले और अगर वह अपने को सही समझता है तो उठकर लड़े। लोगों से विनम्रता से तो पेश आए पर छाती से न लगाए। उसमें साहस आने दें, उसे अधीर बनने दें- उसमें बहादुर बनने का धैर्य आने दें। उसे सिखाएं कि वह अपने में गहरा विश्वास रखे क्योंकि तभी वह मानव जाति में विश्वास रखेगा। यह मेरी एक बड़ी फरमाइश है। पर देखिए कि आप क्या कर सकते हैं क्योंकि यह छोटा बच्चा मेरा बेटा है। (फोटो गूगल से साभार)

Monday 19 January, 2009

फैसला

न्यायाधीश भी मैं हूं,
फैसला भी मुझे देना है।
चाहकर भी नहीं कह पाता,
बाइज्जत बरी िकया जाता है।

Thursday 15 January, 2009

आदत

वो कहती है कभी नहीं देखूंगी अब तेरा चेहरा,
िछप-िछपकर देखने की आदत जो रही है।

चूक

उसने शब्दों को िजया, पढ़ी खूब िकताबें,
बस िजंदगी को जीने में चूक कर गया।

Wednesday 14 January, 2009

सैलाब


उन तसवीरों पर

इक परत सी पड़ गई है।

मेरे और उसके बीच

एक चौड़ी दीवार भी खड़ी है।

तसवीर भी सच है

और...

दीवार भी।

सच तो

आंखों का सैलाब भी है...।

Monday 12 January, 2009

एेसा क्यों है?

कुछ िलखने का मन नहीं कर रहा था। बस... कंप्यूटर के कमांड्स चलते जा रहे थे। मन कुछ सोच ही नहीं रहा था। कई बार एेसा होता है िक हमारा कुछ करने का मन नहीं होता। ... लेिकन हम करते हैं। क्यूं करते हैं... पता नहीं। न तो इस तरह से कुछ करने का कोई अथॆ होता है और न ही इसका नतीजों से कोई खास सरोकार होता है। बस यूं हीं...।
हमारे जीवन में ज्यादा चीजें बेमन से ही होती हैं शायद। बस हम िकए जाते हैं। क्या साथॆकता की सोचे बगैर इस तरह के कृत्य का कोई अथॆ होता है? अगर नहीं तो एेसा क्यों है? िकताब में पढ़ी चीजों या बातों से अगर िजंदगी तलाशी जाए तो क्या वाकई जीना मुिश्कल हो जाता है? एेसी मुिश्कल से िनकलने का क्या यही रास्ता है िक हम बस यूं ही सब कुछ िकए जाएं? यूं ही िजए जाएं? इसका सवाल का जवाब िमल जाए तो मुिश्कल थोड़ी हल हो जाए।

Sunday 11 January, 2009

वक्त

िजनकी िकलकािरयों में कभी शब्द ढूंढा करते थे,
आजकल उनके हंसने की वजह बन गए हैं हम।

Monday 5 January, 2009

पतवार

िजन पतवारों के संग पार होनी थी नाव,
उनका तो िकनारों से कोई िरश्ता ही न था।

Saturday 3 January, 2009

मोड़

वह आज भी िमली थी उसी मोड़ पर,
उस मोड़ पर ही उसने दुिनया बसा ली है।

खुदा

कभी खुदा अगर मुझे िमल जाए कहीं
तो पूछूंगा...
मुझे भेजा था यहां इसी काम के िलए?

Thursday 1 January, 2009

दाग

एे चांद हमने देखा है तुम्हारे चेहरे का दाग,
कभी फुसॆत हो तो आईने में चेहरा देख जाना।