Wednesday 20 May, 2009

जरा पढ़िए बिहार के संदेश को...


चुनाव खत्म हुआ- नतीजे भी आ गए। इसे लेकर व्याख्या करने का दौर जारी है। खुद को कभी इस देश का प्रधानमंत्री देखने वाले लालू जी की हालत देखते ही बन रही है। कांग्रेस को चुनाव से पहले आंख तरेरने वाले लालू यादव को जनता ने इस तरह पटका है कि वे बिना मांगे ही समर्थन देने के लिए दिल्ली की गली में घूम रहे हैं। कांग्रेस उन्हें बुला नहीं रही है और वे कह रहे हैं कि उनके साथ ठीक व्यवहार नहीं हो रहा है। ये होती है जनता की ताकत... इसे कहते हैं जनादेश। वह सिर्फ सत्ता का आशीष ही नहीं देती बल्कि धूल भी चला देती है।

बिहार में जो वोटिंग हुई है वह इस बार किसी जात-पात के नाम पर नहीं है। चुनावी विश्लेषकों को भी यह मानना ही होगा कि यह वोट सिर्फ विकास के नाम पर है। नीतीश का जो परचम लहराया है वह विकास पर मुहर है उस जनता का जिसे मूर्ख माना गया और उसका भावनात्मक दोहन किया गया। लालू जिस जाति- जिस वर्ग की राजनीति करते रहे उसकी बदहाली की कोख से भी विद्रोह पैदा हुआ। यह उसकी भी अनुगूंज है।

बिहार का होने की वजह से इस बदलाव को मैंने भी महसूस किया है। अपने शहर पूर्णिया से पचास किलोमीटर दूर अपने गांव जाने में मुझे तीन से चार घंटे लगते थे। अब वह सफर पैंतालीस मिनट में बिना कष्ट के पूरा होता है। पहले हम शाम को अपने गांव जाने से परहेज करते थे- कानून व्यवस्था की स्थिति गड़बड़ थी। इसमें भी सुधार आया है। जब बिहार जाता हूं तो लोगों से चर्चा होती रहती है। नीतीश की जाति कम लोगों को पता है जबकि लालू की सबको पता थी। जिस वर्ग के लालू जी ठेकेदार बनते थे उसे समाज में अधिकार के नाम पर सिर्फ गुंडई और विद्रोह सिखाया गया। उस वर्ग को यह सिखाया गया कि वह नंगा नाचे तो कोई बात नहीं, सरकार उनकी ही है। मंच से खुलेआम गुंडों-मवालियों को सम्मानित किया गया। यह कैसा सामाजिक आंदोलन था और लालू किस तरह का समाज बनाना चाहते थे समझ से बाहर था। मंच से लाठी का प्रदर्शन किया गया जैसे लोग भेड़-बकरी हों। जनता ने बता दिया कि लाठी ताकतवर नहीं होता। उन्हें लाठी की यह संस्कृति मंजूर नहीं है।

बहरहाल, बिहार की जनता ने यह साबित किया है कि उसकी मजबूरियों का गलत फायदा उठाकर कोई सत्ता की दुकानदारी नहीं चमका सकता। अगर वह सत्ता शीर्ष पर बिठाना जानती है तो जमीन भी दिखा देती है। कभी जीत का रिकार्ड बनाने वाले रामविलास पासवान की शक्ल देखिए कई बार तो पहचाने नहीं जाते। एक बिहारवासी होने के नाते मुझे इस जनादेश पर संतोष हो रहा है। हमने लालू जैसे लोगों को राजनीति की सीढ़ी चढ़ते देखा और एक सुंदर समाज को तार-तार होते हुए देखा है।

बिहार की कोख से तो कई आंदोलन पैदा हुए हैं। जरूरत एक और आंदोलन की है। बेहतर हो बिहार कुछ सार्थक इतिहास लिखने का साहस करे। एक कदम तो बढ़ा ही है। इसका स्वागत करना चाहिए।

Sunday 17 May, 2009

चलो चलते हैं...


आओ...

चलो चलते हैं।

फिर से

उसी नदी के किनारे,

जहां बुने थे

हमने

अपने लिए कुछ सपने।

वो सपने

जो नहीं हुए पूरे,

शायद

होने भी नहीं थे।

मैं फेंकता था

पत्थर

और

कहता था तुम्हें...

वो देखो...

मैं दिखाता था

तुम्हें

पानी में बनते वलय

और

तुम देखा करती थी

उनका गुम हो जाना...।

Saturday 9 May, 2009

ये राहुल तो बड़े सयाने हैं...


राहुल का पंजाब दौरा उनके सियासी समझ की शार्पनेस दिखाता है। भारतीय राजनीति में गांधी परिवार की आलोचना करने और राहुल को बच्चा बताकर खारिज करने वालों को पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। इस चुनाव में राहुल ने जिस अंदाज और जिस तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज की है उससे यह तो तय है कि अगला चुनाव राहुल के नाम पर ही होगा। राजनीति की डगर पर उनके कदम का अंदाज इस बात को मजबूती प्रदान करता है।

पंजाब में राहुल ने सिख प्रधानमंत्री के नाम पर खूब राजनीति की। पंजाबियों को इसी मुद्दे पर अपने साथ लाने की कोशिश की। उन्होंने मनमोहन सिंह को शेर-ए-पंजाब बताया और कहा कि यह एक सिख नेतृत्व की बात है। जनता इस बात पर उनका साथ दे कि दो प्रतिशत आबादी का नेतृत्व कर रहे एक सिख को उन्होंने अपना नेता माना है- देश का नेता माना है। यह सिखों के जज्बे की बात है। मनमोहन को कमजोर बताने वाले आडवाणी पर भी उन्होंने खूब हमले किए। कहा, ये मजबूत लोग कहां थे जब संसद पर हमला हुआ? ये मजबूत लोग कहां थे जब कंधार में आतंकियों को छोड़ा जा रहा था। इसके बाद फिर वे मनमोहन और सिख की बात करने लगे। कहा, मैं पूरे देश में घूमा हूं। मुझे कहीं भी कोई कमजोर सिख नजर नहीं आया। मनमोहन के दहाड़ की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इसी के आगे मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान को घुटने टेकने पड़े और सहयोग करना पड़ा। इतना ही नहीं, सिख कौम की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि देश पर जब भी संकट आया है इस कौम ने कुर्बानी देकर देश को बचाया है। ...देखिए राहुल का सियासी सयानापन।

जब राहुल लुधियाना पहुंचे तो उन्हें पंजाब के अलावा बिहार और उत्तर प्रदेश वासियों की भी याद आ गई। ध्यान दें कि लुधियाना में इन दोनों प्रांतों के लोगों के करीब पौने दो लाख वोट हैं। यहां राहुल ने कहा, कांग्रेस के खिलाफ प्रचार में जुटी एनडीए की सहयोगी पार्टियां महाराष्ट्र में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों पर अत्याचार कर रही है। इस तरह के तत्वों को जवाब दिया जाना जरूरी है। तो देखा आपने... राहुल के अंदाज को?

इतना तो स्पष्ट है कि राहुल इस देश में सत्ता पर कब्जा करने के फंडों की खूब समझ रखते हैं। तभी तो उन्हें सिखों से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश तक की याद चुनावी मंच से आ रही है। अब उन्हें बच्चा बताकर खारिज करने का वक्त इतिहास की बात हो गई।

(फोटोः पीटीआई से साभार)

Wednesday 6 May, 2009

खुशवंत सिंह का सामाजिक सरोकार


जब मैं छोटा था और पत्रकारिता में आने की सोच रहा था तो कुछ खास बड़े नामों को लगातार पढ़ता था। कुछ लोग मुझे तब भी पढ़कर समझ में नहीं आते थे। उस वक्त मुझे लगता था कि इन लोगों के लेखन के स्तर का शायद मैं हूं ही नहीं इसीलिए मेरी समझ में नहीं आता है। जब बड़ा हो जाऊंगा तो खुद ही समझने लगूंगा। अब मैं बड़ा हो गया हूं। पत्रकारिता के प्रोफेशन में भी हूं पर मुझे आज भी वे लोग समझ में नहीं आते। इसी बहाने जिक्र करना चाहूंगा महान पत्रकार खुशवंत सिंह का। उनके लेखन में सेक्स और दारू के असामयिक और बेमौसम जिक्र के सामाजिक आस्पेक्ट पर मैं हर बार सोचता हूं पर मेरी समझ में नहीं आता। मैं सोचता हूं इसीलिए कि किसी बड़े नाम को इतनी आसानी से खारिज भी तो नहीं किया जा सकता। समाज का एक बड़ा तबका उन्हें समझता है (शायद) और सम्मान देता है। मुझे एक बार फिर लगने लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है, शायद कि मेरी समझ ही छोटी है।
खुशवंत सिंह को पढ़ता हूं तो मेरी छोटी मानसिकता में यही समझ आता है कि सेक्स से समाज की हर समस्या का समाधान है। अगर कोई सेक्स को इंज्वाय कर ले तो वह समाज के लिए सार्थक हो जाएगा। उसके जीवन में कुछ इस तरह का घटित हो जाएगा कि रातों रात उसका अपने मूल्यों से परिचय हो जाएगा और वह दुनिया को बहुत कुछ देने लायक बन जाएगा। उसे इस दुनिया में आने का उद्देश्य पता लग जाएगा। ...आपको बात अटपटी लग रही होगी क्योंकि मैं लिख रहा हूं, है न? जी नहीं, ये विचार हैं महान पत्रकार खुशवंत सिंह के
पिछले दिनों उन्होंने अपने एक कालम में लिखा कि साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती, प्रग्या ठाकुर और मायाबेन कोडनानी जहर उगलती हैं। आगे उन्होंने लिखा है कि, ये चारों देवियां जहर उगलती हैं और मेरा मानना है कि ये सब सेक्स से जुड़ा है। उसे लेकर जो कुंठाएं होती हैं, उससे सब बदल जाता है। अगर इन देवियों ने सहज जिंदगी जी होती तो उनका जहर कहीं और निकल गया होता। अपनी कुंठाओं को निकालने के लिए सेक्स से बेहतर कुछ भी नहीं है।... क्या अजीब सा दर्शन है न?
खुशवंत सिंह के लेख के सामाजिक आयाम को मैं तलाशता रहता हूं पर ज्यादा वक्त मेरे हाथ खाली होते हैं। मैं समझ ही नहीं पाता हूं कि उनके लिखने का और उसे छापे जाने का क्या अर्थ है। अब यहां इन महिलाओं का जिक्र क्यों किया और वे क्या कहना चाहते हैं, मेरी तो समझ में नहीं आया। इसके बाद जवाब में उमा भारती ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी। इस चिट्ठी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए खुशवंत जी ने अपने अंदाज में एक और लेख लिखा। इस लेख में वे लिखते हैं- उमा ने मुझे औरतों के खिलाफ साबित किया है। काश... यह सच होता। मैं तो औरतों को चाहने के चक्कर में बदनाम हूं। मुझे पूरा यकीन है कि अगर मैं उनके आसपास होता तो उन्होंने मुझे थप्पड़ रसीद दिया होता। जैसा उन्होंने एक समर्थक के साथ किया था। बाद में गुस्सा उतरने पर मुझे किस भी किया होता।... ये कैसी सोच है खुशवंत की?
अब जरा सोचिए कि जिन महिलाओं का जिक्र उन्होंने किया है और उस मामले में उन्होंने जो समाधान बताया है... क्या आप उसे तार्किक मानते हैं? क्या सेक्स में डूबकर समाज में मधुरता घुल जाएगी? समाज की सारी कटुता और कुंठा खत्म हो जाएगी? अगर उमा ने खुशवंत जी के बेहूदे सोच पर उन्हें थप्पड़ लगा दिया होता तो कौन सी राष्ट्रीय आपदा पैदा हो जाती? क्या फर्क पड़ता है इससे कि खुशवंत औरतों के चक्कर में बदनाम हैं? क्या आपको उमा भारती से खुशवंत सिंह के किस के एक्सपेक्टेशन में कुछ सार्थक नजर नजर आता है? इस महान पत्रकार की सामाजिक सोच क्या है? उसके लेखन की सार्थकता क्या है? मुझे उम्मीद है कि जिस साथी को ये सब समझ आए वो मेरा मार्गदर्शन जरूर करेंगे।

Sunday 3 May, 2009

याद आते हैं बाबा नागार्जुन


मौसम चुनाव का है। इस मौसम में बाबा नागार्जुन बरबस ही याद आ जाते हैं। इस बीमार व्यवस्था पर उन्होंने अपनी लेखनी से खूब प्रहार किए थे। अपनी एक कविता में उन्होंने राजनेताओं को खूब नसीहत दी है। सच न बोलना... शीर्षक से इस कविता के कुछ अंश नीचे दिए जा रहे हैं...

सच न बोलना


छुट्टा घूमें डाकू-गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,

देखो हंटर भांज रहे हैं जस के तस जालिम सारे।

जो कोई इनके खिलाफ अंगुली उठाएगा, बोलेगा,

काल कोठरी में जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा।

माताओं, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं,

बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं।

मारपीट है, लूटपाट है, तहस-नहस बर्बादी है,

जोर-जुलम है, जेल सेल है- वाह खूब आजादी है।

रोजी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,

कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा।

नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ करेंगे कभी नहीं,

जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं।

सपने में भी सच न बोलना, वरना पकड़े जाओगे,

भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचे, मेवा-मिसरी पाओगे।

माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजदूर-किसानों का,

हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का।