Thursday 30 April, 2009

नेता जी की उम्र कितनी?

एक मित्र ने एक सवाल पूछा। उन्होंने पूछाः- नेता जी की उम्र कितनी होती है? मैं उसके सवाल को समझ न सका। उसने समझाते हुए इसका जवाब दिया और कहाः- जब एक नेता मरता है तो वह उसके तीस साल बाद तक कम से कम जिंदा रहता है। मैंने सवाल कियाः- वो कैसे? मित्र ने आगे समझाया, देखो... एक तो वह खुद सत्ता का सुख भोगता है और उसके बाद कम से कम दो पीढ़ी तो इस सुख को भोगती ही है। उसकी तीसरी पीढ़ी भी अपने दादा के नाम पर टिकट पर अपना हक जताती है। इस तरह से एक नेता अपनी मौत के तीस साल बाद तक कम से कम जिंदा रहता है।

Thursday 23 April, 2009

एक हैं ओझा जी


अगर आपका वास्ता ओझा जी से पड़ जाए तो आप उन कुछ खुशनसीब लोगों में शामिल हो जाएंगे जो शायद हंसी के खजाने का रास्ता जानते हैं। मेरा वास्ता ओझा जी से पड़ा है। जो कह रहा हूं वह अल्प समय में उनके साथ रहने का अनुभव है- एक बिंदास इंसान।रिश्ता उनका भी खबरों की दुनिया से ही है और हमारी मुलाकात भी प्रोफेशनल लाइफ के एक मोड़ पर ही हुई थी। आजकल वे आई-नेक्सट अखबार, लखनऊ में जिम्मेदार पद पर कार्यरत हैं।बात उन दिनों की है जब राजीव ओझा जी अमर उजाला चंडीगढ़ से जुड़े हुए थे। दैनिक जागरण में करीब सात साल काम करने के बाद मैं भी अमर उजाला की चंडीगढ़ यूनिट से जुड़ गया था। मैं दफ्तर में नया-नया था। हर तरफ केबिन में संपादकीय विभाग के वरिष्ठ लोग बैठे थे। इनमें से एक केबिन में ओझा जी भी विराजमान थे। दूर से देखने में काफी गंभीर लगते थे। कान में कंप्यूटर से जुड़ा चोंगा (हेड फोन) लगाए रहते थे। उस वक्त मेरा ज्यादा लोगों से परिचय नहीं था सो मैंने सोचा कि सबसे वरिष्ठ और समझदार अधिकारी शायद यही हैं। मैंने इस तरह की बात इसीलिए सोची क्योंकि उनके कान में चोंगा रहता था जो औरों के कान में नहीं था। बाद में जब ओझा जी से दोस्ताना संबंध कायम हो गया तो मैंने एक दिन उन्हें यह किस्सा सुना दिया। वे खूब हंसे और बोल पड़े, क्यों महाराज... मैं समझदार नहीं हूं क्या? यही अंदाज ओझा जी को खास बना देता है। भीड़ से अलग खड़ा कर देता है।जब मैं चंडीगढ़ में नया-नया था और ओझा जी के गैंग में शामिल हो गया तो रोज घड़ी देखकर बारह बजे उनका फोन आ जाता। वे कभी फोन पर कभी मुझे हेलो नहीं कहते थे। कहते थे- कि करय छियै?। मतलब- क्या कर रहे हैं। मैं बिहार का मैथिल ब्राह्मण हूं। मैथिली के राज से परदा हटाते हुए ओझा जी ने बताया कि छात्र जीवन या शायद शुरूआती व्यावसायिक जीवन में उनका कोई मैथिल मित्र था जिससे उन्होंने मैथिली सीखी थी। जहां तक मैं समझ सका कि मैथिली के नाम पर उनकी कुल जमा पूंजी- कि करय छियै? ही थी। पर किसी के दिल पर दस्तक देने का ओझा जी का अंदाज देखिए। आज भी हमारी बात मैथिली से ही शुरु होकर हिंदी तक पहुंचती है। बहुत दिन तक अगर हमारी बात न हुई हो तो मैं एक मैसेज करता हूं। लिखता हूं- कि करय छियै?। उधर से उनका फोन आता है और पहले तो आधे मिनट खूब हंसते हैं। फिर बात होती है।हां, तो बात हो रही थी बारह बजे ओझा जी के आने वाले फोन की। उनके फोन के बाद मैं तत्काल आफिस पहुंच जाता था। इसके बाद हम निकल पड़ते किसी गली- किसी मोड़ पर चाय पीने। इसी दौरान देश-समाज की बात होती रहती। कई बार हम अनजाने रास्तों पर भी निकल पड़ते थे। एक बार हम मोरनी जा रहे थे। रास्ता पहाड़ वाला सर्पीला था। वे मेरी मोटरसाइकिल के पीछे बैठे थे। रास्ते में अगल-बगल बंदरों का झुंड मिल जाया करता था। वे जब भी किसी बंदर को देखते तो बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह उसे छेड़ दिया करते थे। मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं अगर बंदरों ने झपट्टा मार दिया तो? ओझा जी ने मुझसे पूछा, क्यों महाराज डरते हैं का? हमने कहा, अगर बंदरों के झुंड ने हमला कर दिया तो? अब ओझा जी भी हमसे सहमत हो गए थे। कहा, हां महाराज ई तो ठीक्के कहते हैं।भावनाओं पर भी भूगोल हावी हो जाता है जनाब...। काश... लखनऊ पास होता।

Tuesday 21 April, 2009

हमारे जीवन का पारसमणि

कई बार जब आप अपने जीवन को गौर से देखेंगे तो बड़े अजीब से अनुभवों के रास्ते से गुजर रहे होंगे। जब आप अपनी यात्रा और उपलब्धियों का हिसाब-किताब करेंगे तो शायद आप बेचैन हो जाएं। इस तरह की बात जीवन के पारसमणि से दूर रहने की वजह से होती है। यह बेचैनी पारसमणि को न पा सकने की सोच के कोख से पैदा होती है। बस कई बार शायद पर्याप्त उद्यम के अभाव में हम चूक जाते हैं।
पाओलो कोएलो की लिखित पुस्तक अलकेमिस्ट में बड़े सुंदर तरीके से यह बात समझाई गई है। इस पुस्तक में मेल्विजेडेक नाम का एक पात्र है।
सेंटियागो नाम के गड़ेरिये से संवाद के क्रम में वह एक कहानी सुनाता हैः- अभी पिछले हफ्ते मुझे एक खान मजदूर के सामने जाना पड़ा, एक पत्थर के रूप में। वह मजदूर अपना सब कुछ छोड़कर पारसमणि जैसे रत्न की खोज में निकल पड़ा था। पूरे पांच साल तक उसने पत्थरों को खोदा, उलट-पलटकर देखा, मगर उसे रत्न नहीं मिला। तब एक वक्त आया कि उसने पारसमणि की तलाश छोड़ देने का इरादा लिया। और वह भी उस समय जब वह मात्र एक पत्थर को उठाकर देखता तो उसे बेशकीमती रत्न मिल जाता। बेहद करीब आकर उसका धैर्य जवाब दे गया। चूंकि वह मजदूर अपना सब कुछ त्याग करके आया था सो मैंने एक पत्थर का रूप धारण किया और लुढ़कता हुआ उसके पैरों से जा टकराया। वह मजदूर विफलता से परेशान हो चुका था सो उसने उस पत्थर को उठाया और दूर फेंक दिया। एक अन्य पत्थर से टकराकर वह टूट गया और बीच से निकला दुनिया का सबसे खूबसूरत रत्न- पारसमणि।
इस कहानी का जिक्र सिर्फ इसलिए कि हम सबके जीवन में पाससमणि है। जीवन की सार्थकता, उसकी पूर्णता... पासमणि से ही है। जीवन का उद्देश्य पारसमणि को पाना ही है। यात्रा चलती रहनी चाहिए। थकना नहीं हैः- पारसमणि जो पाना है। चरैवेति... चरैवेति...।

Thursday 16 April, 2009

ये हैं गांधीगीरी वाले मुन्ना भाई...


यह देश की राजनीति का विद्रूप चेहरा है। यह नैतिक पतन की एक बानगी है। यह सब शर्मसार करने वाला है।

संजय दत्त यानी संजू बाबा को तो आप जानते ही होंगे... वही मुन्ना भाई एमबीबीएस वाले। ये वही संजय हैं जिन्होंने गुलाब हाथ में लेकर देश को गांधीगीरी का फंडा सिखाया था। परदे पर नौटंकी का यह फार्मूला इतना हिट हुआ कि लोग हर चौक-चौराहे पर देश भर में लोग हाथ में गुलाब लेकर गांधीगीरी को निकल पड़े। माहौल कुछ इस तरह बना कि देश में क्रांति आने वाली हो। खोखले और तथाकथित बुद्धिजीवियों की जमात ने संजू को माथे पर बिठा लिया। गांधी के दर्शन से कोई सरोकार न रखने वाले संजय को लोग गांधी का दूत समझने लग गए।

लेकिन परदे के चेहरे और जमीन की हकीकत में फर्क होता है। देर-सवेर यह लोगों के सामने भी आ ही जाता है। जल्द ही लोगों के सामने आ गया कि गांधी की टोपी मात्र पहनने से कोई शख्स गांधी नहीं बन जाता- नहीं बन सकता। उत्तर प्रदेश में एक चुनावी रैली के दौरान संजय दत्त ने कहा कि उन्हें पुलिस वालों ने गिरफ्तार करने के बाद बहुत मारा। उन्हें सिर्फ इसीलिए मारा गया क्योंकि उनकी मां मुसलमान थीं। बड़ी अजीब सी फिलोसफी है न ये? इस देश को शायद मुन्ना भाई यह भी समझाने की कोशिश करें कि उन्हें गिरफ्तार इसीलिए किया गया क्योंकि उनकी मां मुसलमान थीं। पूरा देश- पूरी दुनिया जानती है कि संजू को किन कारगुजारियों की वजह से उन्हें गिरफ्तार किया गया था। उनकी यह बयानबाजी राजनीतिक घटियापन का एक उदाहरण मात्र है।

अभी कुछ ही दिनों पहले संजू ने एक और घटिया बयान दिया था। उन्होंने अपनी पिता की मौत पर भी सियासी रोटी सेंकने की कोशिश की थी। संजय ने कहा था कि उनके पिता सुनील दत्त की मौत इसीलिए हुई कि संजय निरूपम को कांग्रेस में ज्यादा तवज्जो दी जा रही थी और उनके पिता को इग्नोर किया जा रहा था। इसी वजह से दत्त साहब तनाव में थे और उनकी मौत हो गई। ...क्या यह बेहूदा और बचकाना तर्क आपकी समझ में आता है? मैं यहां संजय निरूपम के साथ खड़ा हूं। उन्होंने संजू की इस बात पर मीडिया से मुखातिब होकर कहा था कि, मरहूम सुनील दत्त तो संजू के कृत्यों की वजह से परेशान रहा करते थे। उनकी सबसे बड़ी परेशानी तो संजू ही थे।

अब जरा सोचिए...। संजू इस तरह की बात आखिर क्यों कर रहे हैं? ये सियासत के दलदल में पतन की पराकाष्ठा की एक कहानी मात्र है। संजय ने मुस्लिम मां वाला बयान सिर्फ इसीलिए दिया क्योंकि वे मुस्लिम समुदाय को इमोशनली ब्लैकमेल करना चाहते थे। समाज में इस तरह से विष फैलाने वाले को रोकने का वक्त है। अभी समय जनता का है। हमे इस तरह की व्यवस्था- इस तरह के व्यक्ति को इनकार करना चाहिए।

Tuesday 14 April, 2009

ये बदजुबान नेता और ये बेशर्म राजनीति


बड़ी बेशर्मी महसूस होती है जब ये लगता है कि हमें कुछ बेशर्म और बदजुबान लोगों में से किसी को चुनकर अपना भाग्य निर्माता बना देना है। संतोष भी होता है तब जब इस तरह के लोगों को जनता भी उनके ही अंदाज में गरियाते हुए खदेड़ देती है। इन सब बातों से यह तो तय है कि चीजें इस तरह नहीं चलेंगी, नहीं चलनी चाहिए।

बदलाव का वक्त आ गया है। कहीं न कहीं सुगबुगाहट भी है और जनता अपने तरीके से इस बात का संकेत दे रही है। हाथ काटने की बात कहने वाले वरूण और रोलर के नीचे कुचलने की बात करने वाले लालू को यह सोचना ही होगा कि देश उनके तौर तरीके से नहीं चलेगा।

थोड़ा पीछे चलेंगे। पीलीभीत में वरूण ने जो जहर उगला वह अनायास नहीं रहा होगा। एक सुनियोजित सियासी सोच इसके पीछे रही होगी। विदेशों से ऊंची डिग्री लेकर आए वरूण इतने बच्चे और मासूम भी नहीं हैं कि उन्हें इसके दुष्प्रभाव का अंदाजा न रहा हो। वरूण के बयान पर जब बवाल हुआ तो अचानक भाजपा समझ न सकी कि उसे क्या स्टैंड लेना है। पहले वह कहती रही कि अभी वह वरूण के बयान का अध्ययन कर रही है। पार्टी के वरिष्ठ नेता मीडिया से कन्नी काटते रहे। लेकिन भाजपा को जल्द ही लग गया कि खामोशी से तो उसे घर से घाटा हो जाएगा सो वरूण के समर्थन में कूद पड़ी। बहरहाल, लालू ने नहले पर दहला दे मारा। बिहार के किशनगंज में (यह मुस्लिम बहुल इलाका है) लालू ने सारी सीमाएं पार कर दी। उन्होंने कहा कि अगर वे गृहमंत्री होते तो वरूण को रोलर के नीचे कुचलवा देते। लालू जी को यह ध्यान शायद नहीं रहा कि इस देश की व्यवस्था उनकी बपौती नहीं है और डेमोक्रेटिक सिस्टम में इस तरह की कार्रवाई की इजाजत नहीं है। फिर इस तरह के बयान का क्या औचित्य है? क्या सिर्फ एक समुदाय विशेष को इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए? देश को चाहिए कि वरूण और लालू दोनों को इनकार करे। इस तरह के बयान और बातों को हतोत्साहित किया जाए, किया जाना चाहिए।

लेकिन जब एक बार बदजुबानी शुरू हो गई तो भला कौन रूकने वाला है। हर नेता को पता है कि ताली बजाने वालों की एक भीड़ इस देश में भेंड़-बकड़ी की तरह मौजूद है। भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कांग्रेस को बुढ़िया कह दिया। प्रियंका गांधी ने कांग्रेस की तरफ से सवालिया लहजे में इसका जवाब दिया और पत्रकारों से ही पूछा, क्या मैं बुढ़िया लगती हूं? मोदी रूके नहीं। उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, ठीक है। अगर कांग्रेस वालों को बुढ़िया वाली बात पसंद नहीं है तो मैं बुढ़िया नहीं कहूंगा। यह कहूंगा कि कांग्रेस तो गुड़िया की पार्टी है। अब जरा सोचिए। ये बुढ़िया और गुड़िया की बहस से देश का कौन सा भला होना है? एक परिपक्व राजनेता इस तरह की निरर्थक बात क्यों कर रहा है? अजीब सी नौटंकी चल पड़ी है पूरे देश में। एक और बददिमाग कांग्रेसी नेता इस चर्चा में कूद पड़ा। उसने मर्यादा की सारी सीमां लांघ दी। उसने कहा, भाजपा को चाहिए कि अटल और आडवाणी जैसे लोगों को अरब सागर में डाल दे। देश उम्र से नहीं अंदाज से चलता है। चुनाव का वक्त है। हमें भी चाहिए कि हम प्रगतिशील सोच वाला कोई प्रतिनिधि चुनें (अगर संभव हो तो) ताकि एक बेहतर भविष्य की उम्मीद तो बने।