Tuesday 21 July, 2009
अमित बाबू, अच्छा है जो भारत में पैदा हुए
Wednesday 8 July, 2009
माइकल से सीखिए मैनेजमेंट
इधर कुछ दिनों से माइकल जैक्सन के बारे में काफी कुछ पढ़ा-देखा और जाना भी। माइकल के कठिन बचपन के बारे में और उनसे जुड़े तमाम विवादों के बारे में भी। उनकी शादियों-तलाकों के किस्से हों या फिर बच्चों के यौन शोषण के आरोपों को लेकर उनका चर्चा में बने रहना- सब बातों और विषयों पर मीडिया में खूब छपा। तमाम नकारात्मक चर्चाओं के बाद भी माइकल का जादू कम नहीं हुआ। दुनिया भर में उनके चाहने वाले कम नहीं हुए।
आप माइकल जैक्सन के प्रशंसक हों या न हों... कोई बात नहीं, पर जरा माइकल को स्टेज पर थिरकते देखिए। देखिए कि वह इंसान स्टेज पर सिर्फ और सिर्फ गीत-संगीत को ही जीता था। उनके शरीर का कोई भी हिस्सा इसके इतर कुछ भी नहीं कहता था। एक-एक अंग की केमेस्ट्री सिर्फ और सिर्फ उनकी कला से ही जुड़ी थी।
इसे कहते हैं वो बात जो किसी भी इंसान को खास बना देती है- माइकल जैक्सन बना देती है। आप जहां भी हों- जो भी कर रहे हों उसमें पूरी तन्मयता जरूरी है। खुद को पूरी तरह से झोंक देना जरूरी है। काश... हम माइकल का यह मैनेजमेंट सीख पाते।
अलविदा माइकल... अलविदा।
Sunday 21 June, 2009
...तो भाजपा के भविष्य होते वरुण
अब थोड़ा पीछे चलते हैं। आठ मार्च को पीलिभीत में वरुण गाँधी ने एक समुदाय विशेष के खिलाफ अपनानजनक और भड़काऊ बात की। हंगामा हुआ। चुनाव आयोग ने मामले में अपनी सलाह दी। भाजपा से कहा गया कि वरुण को प्रत्याशी न बनाया जाए। अभी भाजपा मामले का विश्लेषण कर रही थी। तत्काल उसने इस मामले में कोई टिप्पणी नहीं की। एक ओर कट्टर हिंदुत्व की बात थी और दूसरी तरफ भाजपा का बदला हुआ चेहरा। यह वह चेहरा था जो विकास की बात ज्यादा करता था। पार्टी के रणनीतिकार चूक कर गए। उन्होंने आयोग की सलाह को दरकिनार करते हुए वरुण के साथ खड़े होने का फैसला किया।
सियासत के गलियारे की खबर रखने वालों को भी शायद ही भाजपा के इतने निराशाजनक प्रदर्शन की उम्मीद नहीं थी। सो, यह माना जाने लगा कि अचानक आकाश में चमका यह युवा सितारा भाजपा का भविष्य है। भाजपा में इस तरह के उत्साही लोगों को माथे पर बिठा लेने की परंपरा रही है। यह सच है कि अगर नतीजों ने भाजपा के रीढ़ की हड्डी न तोड़ दी होती तो वरुण टीवी स्क्रीन से लेकर अखबारों तक में चमकते रहते।
भाजपा से दो चूक हुई। एक तो उसने वरुण के मामले में आयोग की सलाह नहीं मानी और दूसरी प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह पर गैरजरूरी हमले किए। जनता इसे पचा न सकी और वह भाजपा के साथ नहीं रही। अगर भाजपा तभी आयोग की सलाह मान लेती तो देश भर में एक सकारात्मक संदेश जाता और नतीजे शायद इस तरह के नहीं होते। लेकिन शायद भाजपा की रणनीति बनाने वालों को लगा होगा कि वरुण तो राममंदिर जैसा जादू करने का माद्दा रखते हैं। बहरहाल चूक के बाद भाजपा में मंथन और सिरफुटव्वल का दौर अभी जारी है।
Wednesday 17 June, 2009
अखबार में कहीं जगह है?
Monday 15 June, 2009
रंग तो थोड़ा भी बहुत होता है
Sunday 14 June, 2009
बाल ठाकरे का दोगलापन
Wednesday 20 May, 2009
जरा पढ़िए बिहार के संदेश को...
Sunday 17 May, 2009
चलो चलते हैं...
Saturday 9 May, 2009
ये राहुल तो बड़े सयाने हैं...
Wednesday 6 May, 2009
खुशवंत सिंह का सामाजिक सरोकार
Sunday 3 May, 2009
याद आते हैं बाबा नागार्जुन
Thursday 30 April, 2009
नेता जी की उम्र कितनी?
Thursday 23 April, 2009
एक हैं ओझा जी
Tuesday 21 April, 2009
हमारे जीवन का पारसमणि
पाओलो कोएलो की लिखित पुस्तक अलकेमिस्ट में बड़े सुंदर तरीके से यह बात समझाई गई है। इस पुस्तक में मेल्विजेडेक नाम का एक पात्र है।
सेंटियागो नाम के गड़ेरिये से संवाद के क्रम में वह एक कहानी सुनाता हैः- अभी पिछले हफ्ते मुझे एक खान मजदूर के सामने जाना पड़ा, एक पत्थर के रूप में। वह मजदूर अपना सब कुछ छोड़कर पारसमणि जैसे रत्न की खोज में निकल पड़ा था। पूरे पांच साल तक उसने पत्थरों को खोदा, उलट-पलटकर देखा, मगर उसे रत्न नहीं मिला। तब एक वक्त आया कि उसने पारसमणि की तलाश छोड़ देने का इरादा लिया। और वह भी उस समय जब वह मात्र एक पत्थर को उठाकर देखता तो उसे बेशकीमती रत्न मिल जाता। बेहद करीब आकर उसका धैर्य जवाब दे गया। चूंकि वह मजदूर अपना सब कुछ त्याग करके आया था सो मैंने एक पत्थर का रूप धारण किया और लुढ़कता हुआ उसके पैरों से जा टकराया। वह मजदूर विफलता से परेशान हो चुका था सो उसने उस पत्थर को उठाया और दूर फेंक दिया। एक अन्य पत्थर से टकराकर वह टूट गया और बीच से निकला दुनिया का सबसे खूबसूरत रत्न- पारसमणि।
इस कहानी का जिक्र सिर्फ इसलिए कि हम सबके जीवन में पाससमणि है। जीवन की सार्थकता, उसकी पूर्णता... पासमणि से ही है। जीवन का उद्देश्य पारसमणि को पाना ही है। यात्रा चलती रहनी चाहिए। थकना नहीं हैः- पारसमणि जो पाना है। चरैवेति... चरैवेति...।
Thursday 16 April, 2009
ये हैं गांधीगीरी वाले मुन्ना भाई...
Tuesday 14 April, 2009
ये बदजुबान नेता और ये बेशर्म राजनीति
Saturday 28 March, 2009
आइए भूल जाएं बापू के सपनों को...
बात थोड़ी अटपटी लगती है। सीधी सपाट बातें हमेशा अटपटी ही लगती है शायद। देश एक बार फिर से लोकतंत्र के महापर्व की तैयारी कर रहा है। जनता एक बार फिर से सरकार चुनेगी और देश की किस्मत में लिखी जाएंगी फिर वही पुरानी कहानियां। देश के इस भविष्य को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही भांप लिया था। एक तरह से कह सकते हैं कि वे जान चुके थे कि यह देश उनके सपनों की- उनकी सोच की कब्रगाह बनने जा रही है।
महान स्वतंत्रता सेनानी महावीर त्यागी ने एक पुस्तक लिखी है- वे क्रांति के दिन। इसमें उन्होंने गांधी जी से जुड़ी कई बातें लिखी है। उन्होंने लिखा है... १४ मई १९४७ को बापू काफी थके हुए थे। उनकी तबीयत भी थोड़ी गड़बड़ चल रही थी। डा. विधानचंद्र राय उनसे मिलने आए और कहा, यदि अपने लिए नहीं तो जनता की अधिक सेवा करने के लिए ही सही पर क्या आराम करना आपका धर्म नहीं बन जाता? बापू बोले, हां, यदि लोग मेरी कुछ भी सुनें और मैं लोगों के किसी उपयोग का हो सकूं तो... पर अब मुझे नहीं लगता है कि मेरा कोई उपयोग है। भले ही मेरी बुद्धि मंद हो गई हो फिर भी संकट के इस काल में आराम करने की बजाए करना या मरना ही पसंद करूंगा। मेरी इच्छा बस काम करते-करते और राम रटन करते-करते मरने की है। मैं अपने अनेक विचारों में बिल्कुल अकेला पड़ गया हूं। फिर भी ईश्वर मुझे साहस दे रहा है।
देश में सरकार बनने के बाद जनसेवकों से रहन-सहन से भी बापू दुखी रहा करते थे। एक बार प्रार्थना करने के वक्त बापू ने कहा था कि, स्वतंत्रता का जो अमूल्य रत्न हमारे हाथ आ रहा है, मुझे डर है कि हम उसे खो बैठेंगे। स्वराज्य लेने का पाठ तो हमें मिला परन्तु उसे टिकाए रखने का पाठ हमने नहीं सीखा। अंग्रेजों की तरह बंदूकों के जोर पर हमारी राज्य सत्ता नहीं चलेगी। आशंका है कि जनसेवा की बात करने वाले ही जनता को धोखा देंगे और सेवा करने की बजाए उसके मालिक बन जाएंगे या मालिकों की तरह ही व्यवहार करेंगे। मैं शायद जीऊं या न जीऊं परन्तु इतने वर्षों के अनुभव के आधार पर चेतावनी देने की हिम्मत करूंगा कि देश में बलवा मच जाएगा, सफेद टोपी वालों को लोग चुन-चुनकर मारेंगे और कोई तीसरी सत्ता उसका लाभ उठाएगी।
१९ अप्रैल १९४७ को जब बिहार का मंत्रिमंडल बापू से पटना में मिलने आया तो पटना में बापू ने कुछ अपने विचार भी रखे। उन्होंने बताया कि मंत्रिमंडल के सदस्यों और गवर्नरों को कैसे रहना चाहिएः-
मंत्रियों और गवर्नरों को यथासंभव स्वदेशी वस्तुएं ही काम में लानी चाहिए। उनको और उनके कुटुंबियों को खादी पहनना चाहिए और अहिंसा में विश्वास रखना चाहिए।
उन्हें दोनों लिपियां सीखनी चाहिए पर जहां तक संभव हो आपसी बातचीत में अंगेजी का व्यवहार नहीं करना चाहिए। सार्वजनिक रूप से हिंदुस्तानी और अपने प्रांत की भाषा का ही उपयोग करना चाहिए।
सत्ताधारी की दृष्टि में अपना सगा बेटा, सगा भाई, एक सामान्य व्यक्ति, कारीगर या मजदूर सब एक से होने चाहिए।
व्यक्तिगत जीवन इतना सादा होना चाहिए कि लोगों पर उसका प्रभाव पड़े। उन्हें हर रोज देश के लिए एक घंटा शारीरिक श्रम करना चाहिए। या तो चरखा कातें या साग-सब्जी लगाना चाहिए।
मोटर और बंगला तो होना ही नहीं चाहिए। आवश्यकता के अनुसार साधारण मकान का उपयोग करना चाहिए। हां, यदि दूर जाना हो या किसी खास काम से जाना हो तो जरूर मोटर काम में ले सकते हैं। लेकिन मोटर का उपयोग मर्यादित होना चाहिए। मोटर की थोड़ी बहुत जरूरत तो कभी न कभी रहेगी ही।
घर के दूसरे भाई-बहन घर में हाथ से ही काम करें। नौकरों का उपयोग कम से कम होना चाहिए।
सोफा सेट, आलमारियां या चमकीली कुर्सियां बैठने के लिए नहीं रखनी चाहिए।
मंत्रियों को किसी प्रकार का व्यवसन तो होना ही नहीं चाहिए।
प्रत्येक मंत्री के बंगले के आसपास आजकल तो छह या इससे अधिक सिपाहियों का पहरा रहता है वह अहिंसक मंत्रिमंडल को बेहूदा लगना चाहिए।
इसी समय उन्होंने यह भी कहा था कि, लेकिन मेरे इन सब विचारों को भला मानता कौन है। फिर भी मुझसे बिना कहे रहा भी नहीं जाता क्योकि चुपचाप देखते रहने की मेरी इच्छा नहीं है।
अब बापू की बात तो हम सबने सुन ली पर सच बापू भी जानते थे- हम भी जानते हैं और आप भी। तो आइए भूल जाते हैं बापू के इन सपनों को और जमकर मनाते हैं एक बार फिर लोकतंत्र का जश्न।
Sunday 22 March, 2009
समय का पहिया
Thursday 19 February, 2009
जरा उस्ताद जी की बात तो सुनिए..
Wednesday 11 February, 2009
Thursday 22 January, 2009
अपेक्षा बहुत कुछ सिखाती है...
Monday 19 January, 2009
Thursday 15 January, 2009
Wednesday 14 January, 2009
सैलाब
Monday 12 January, 2009
एेसा क्यों है?
हमारे जीवन में ज्यादा चीजें बेमन से ही होती हैं शायद। बस हम िकए जाते हैं। क्या साथॆकता की सोचे बगैर इस तरह के कृत्य का कोई अथॆ होता है? अगर नहीं तो एेसा क्यों है? िकताब में पढ़ी चीजों या बातों से अगर िजंदगी तलाशी जाए तो क्या वाकई जीना मुिश्कल हो जाता है? एेसी मुिश्कल से िनकलने का क्या यही रास्ता है िक हम बस यूं ही सब कुछ िकए जाएं? यूं ही िजए जाएं? इसका सवाल का जवाब िमल जाए तो मुिश्कल थोड़ी हल हो जाए।