Monday 24 November, 2008

जीवन और िरश्ते


समय की रेत पर
बनते-िबगड़ते हैं कई िरश्ते।
कुछ कहने से पहले ही
खामोश हो जाते हैं कई।
आिखर इन अधूरी कहािनयों का
उद्देश्य क्या होता है?
ये क्यों शुरू करती हैं जन्म लेना
जब िजंदगी जीनी ही न हो?
एेसे अक्स आिखर उभरते ही क्यों हैं
िजन्हें कोई शक्ल-सूरत नसीब ही न हो?
कुछ बात तो होगी,
आिखर क्या बात होगी?
धीरे-धीरे धुंधली होकर गायब होती कहािनयों में
झलक होती है िजंदगी की।
ये झलक- ये ललक
ही तो िजंदगी है।

Saturday 1 November, 2008

एक और किवता


मैं एक किव सम्मेलन से
िनकला ही था िक-
िसफॆ सूखी पसिलयों पर िटका एक ढ़ांचा
टकरा गया मुझसे-
उसे भूख लगी थी शायद,
शब्द बाहर नहीं आ रहे थे
सो इशारों से ही वह
मांग रहा था हर आने-जाने वाले से
कुछ खाने के िलए।
मेरी भी नजर पड़ी थी उस पर
और...
िमला था मुझे
अपनी किवता का नया मसाला।
उसकी हिड्डयों के उबड़-खाबड़ रास्तों से
गुजरते हुए शब्द ले रहे थे अपनी शक्ल
...और
तैयार हो रही थी
मेरी एक और किवता।