Saturday 1 November, 2008

एक और किवता


मैं एक किव सम्मेलन से
िनकला ही था िक-
िसफॆ सूखी पसिलयों पर िटका एक ढ़ांचा
टकरा गया मुझसे-
उसे भूख लगी थी शायद,
शब्द बाहर नहीं आ रहे थे
सो इशारों से ही वह
मांग रहा था हर आने-जाने वाले से
कुछ खाने के िलए।
मेरी भी नजर पड़ी थी उस पर
और...
िमला था मुझे
अपनी किवता का नया मसाला।
उसकी हिड्डयों के उबड़-खाबड़ रास्तों से
गुजरते हुए शब्द ले रहे थे अपनी शक्ल
...और
तैयार हो रही थी
मेरी एक और किवता।

3 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

बहुत ख़ूब...

संगीता पुरी said...

अच्‍छी है।

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

आपने बहुत अच्छा िलखा है । मैने अपने ब्लाग पर एक किवता िलखी है । समय हो तो पढें और राय भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com