जब मैं छोटा था और पत्रकारिता में आने की सोच रहा था तो कुछ खास बड़े नामों को लगातार पढ़ता था। कुछ लोग मुझे तब भी पढ़कर समझ में नहीं आते थे। उस वक्त मुझे लगता था कि इन लोगों के लेखन के स्तर का शायद मैं हूं ही नहीं इसीलिए मेरी समझ में नहीं आता है। जब बड़ा हो जाऊंगा तो खुद ही समझने लगूंगा। अब मैं बड़ा हो गया हूं। पत्रकारिता के प्रोफेशन में भी हूं पर मुझे आज भी वे लोग समझ में नहीं आते। इसी बहाने जिक्र करना चाहूंगा महान पत्रकार खुशवंत सिंह का। उनके लेखन में सेक्स और दारू के असामयिक और बेमौसम जिक्र के सामाजिक आस्पेक्ट पर मैं हर बार सोचता हूं पर मेरी समझ में नहीं आता। मैं सोचता हूं इसीलिए कि किसी बड़े नाम को इतनी आसानी से खारिज भी तो नहीं किया जा सकता। समाज का एक बड़ा तबका उन्हें समझता है (शायद) और सम्मान देता है। मुझे एक बार फिर लगने लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है, शायद कि मेरी समझ ही छोटी है।
खुशवंत सिंह को पढ़ता हूं तो मेरी छोटी मानसिकता में यही समझ आता है कि सेक्स से समाज की हर समस्या का समाधान है। अगर कोई सेक्स को इंज्वाय कर ले तो वह समाज के लिए सार्थक हो जाएगा। उसके जीवन में कुछ इस तरह का घटित हो जाएगा कि रातों रात उसका अपने मूल्यों से परिचय हो जाएगा और वह दुनिया को बहुत कुछ देने लायक बन जाएगा। उसे इस दुनिया में आने का उद्देश्य पता लग जाएगा। ...आपको बात अटपटी लग रही होगी क्योंकि मैं लिख रहा हूं, है न? जी नहीं, ये विचार हैं महान पत्रकार खुशवंत सिंह के ।
पिछले दिनों उन्होंने अपने एक कालम में लिखा कि साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती, प्रग्या ठाकुर और मायाबेन कोडनानी जहर उगलती हैं। आगे उन्होंने लिखा है कि, ये चारों देवियां जहर उगलती हैं और मेरा मानना है कि ये सब सेक्स से जुड़ा है। उसे लेकर जो कुंठाएं होती हैं, उससे सब बदल जाता है। अगर इन देवियों ने सहज जिंदगी जी होती तो उनका जहर कहीं और निकल गया होता। अपनी कुंठाओं को निकालने के लिए सेक्स से बेहतर कुछ भी नहीं है।... क्या अजीब सा दर्शन है न?
खुशवंत सिंह के लेख के सामाजिक आयाम को मैं तलाशता रहता हूं पर ज्यादा वक्त मेरे हाथ खाली होते हैं। मैं समझ ही नहीं पाता हूं कि उनके लिखने का और उसे छापे जाने का क्या अर्थ है। अब यहां इन महिलाओं का जिक्र क्यों किया और वे क्या कहना चाहते हैं, मेरी तो समझ में नहीं आया। इसके बाद जवाब में उमा भारती ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी। इस चिट्ठी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए खुशवंत जी ने अपने अंदाज में एक और लेख लिखा। इस लेख में वे लिखते हैं- उमा ने मुझे औरतों के खिलाफ साबित किया है। काश... यह सच होता। मैं तो औरतों को चाहने के चक्कर में बदनाम हूं। मुझे पूरा यकीन है कि अगर मैं उनके आसपास होता तो उन्होंने मुझे थप्पड़ रसीद दिया होता। जैसा उन्होंने एक समर्थक के साथ किया था। बाद में गुस्सा उतरने पर मुझे किस भी किया होता।... ये कैसी सोच है खुशवंत की?
अब जरा सोचिए कि जिन महिलाओं का जिक्र उन्होंने किया है और उस मामले में उन्होंने जो समाधान बताया है... क्या आप उसे तार्किक मानते हैं? क्या सेक्स में डूबकर समाज में मधुरता घुल जाएगी? समाज की सारी कटुता और कुंठा खत्म हो जाएगी? अगर उमा ने खुशवंत जी के बेहूदे सोच पर उन्हें थप्पड़ लगा दिया होता तो कौन सी राष्ट्रीय आपदा पैदा हो जाती? क्या फर्क पड़ता है इससे कि खुशवंत औरतों के चक्कर में बदनाम हैं? क्या आपको उमा भारती से खुशवंत सिंह के किस के एक्सपेक्टेशन में कुछ सार्थक नजर नजर आता है? इस महान पत्रकार की सामाजिक सोच क्या है? उसके लेखन की सार्थकता क्या है? मुझे उम्मीद है कि जिस साथी को ये सब समझ आए वो मेरा मार्गदर्शन जरूर करेंगे।
9 comments:
इस चिंताजनक विषय को आपने चिंतन के काबिल समझा
आभार
बहुत बहुत सही कहा है आपने...ऐसी ही सोच मेरी भी है,खुशवंत शोभा दे या इन जैसे कई प्रसिद्द लेखक लेखिकाओं के बारे में.
समस्या यह है की,बहुधा लोग प्रसिद्धि शब्द के प्रति दिग्भ्रमित हो जाते हैं...क्योंकि प्रसिद्धि " सु" और "कु" दोनों प्रकार की होती है.
मुझे लगता है बड़े चाव से इन्हें पढने वाले और इनके प्रशंशक भी इन्हें इसलिए पढ़ते हैं क्योंकि इनके लिखे में "मसाला" होता है..
आपने सही कहा है....मैंने आजतक इनका लिखा ऐसा कुछ नहीं देखा जिसमे तथाकथित " कुंठाओं " के इर्द गिर्द घूमते सारे विषय न हों....इनके सामाजिक सरोकार के समस्त विषय एक जगह से निकलते और निष्कर्ष एक ही जगह जाकर समाप्त होते हैं...
Inke lekh me bade logon ke liye dher sara masala hota hai.
Aur bade bade logon ki baten jaise ki famous friends aur ministers ko dekhne ka personal najariya aur unhe apne lekh me jagah dena aadi.....
Inhi logon ne inko famous kar dia hai....
Main bhi pahle inke lekh maje lekar padhta tha But mujhe nahi lagta ki inme koi samajik soch ya doordarshita hai.....vaise logon ka kam hi har lekh se kuch na kuch seekh nikal dena hota hai usme kuch ho ya na ho.
Is tarah ke lekh log man bahlane ke liye hi padhte hain na ki koi
gahan chintan ke liye.....
Kushvant Singh ne ek bar kaha tha ki hindi main Rat aur Mouse ke liye alag-alag do shabad nahi hai. Unke mansik divaliyapan ka isse bada udaharan aur kya ho sakta hai?
इसके बाद और बावजूद खुशवंत एक बड़े लेखक हैं और प्रकाशक आगे पीछे दम हिलाते रहते हैं ! ऐसा क्यों है भला ?
वैसे यह बूढा सिख मेरे भी पसंदीदा लेखको में से एक है -जबकि शोभा डे नहीं हैं ! कई कारन हैं जो खुशवंत को लाट से अलग करता है -मनोविनोदी स्वभाव -इस लेखक को शब्दों से न पकडें ! उर्दू साहित्य पर जबर्दस्त पकड़ ,पर्यावरण की बेहतर जानकारी .,पशु पक्षियों से प्रेम और सेक्स टैब्बू से तोबा !
कुछ तो है इस लेखक में ! और टिप्पणीकारों की बात में भी दम है !
जिन चारों महिलाओं के नाम इस "सनकी-ठरकी बुढ्ढे" ने गिनाये हैं उनके समर्थकों की संख्या खुशवन्त सिंह के जीवन भर लिखे गये उपन्यासों के कुल पाठकों से कहीं ज्यादा है… और जब ऐसे लोगों को ऐसे घटिया विचारों के लिये "ठोका-बजाया" जाता है तो सेकुलर(?) लोगबाग "साम्प्रदायिकता" का राग अलापने लगते हैं जैसा कि हुसैन के मामले में अक्सर होता है… देवी-देवताओं के नंगे चित्र बनाने वाला आज देश से बाहर धकियाया गया है, यह एक सुकून की बात है…। खुशवन्त सिंह का क्या है, आज है, कल "उठावना" भी हो सकता है…
भाई सुरेश चिपलूनकर जी ने मेरी बात को बिलकुल मेरे ही शब्दों में कह दिया बस शायद मैं थोड़े से अधिक कड़े शब्दों का चयन करता, धन्यवाद भाई मेरी बात को अपनी तरफ़ से कहने के लिये....
सादर
डा.रूपेश श्रीवास्तव
प्रिय रंजन जी,खुशवंत सिंह के लेखन और व्यक्तित्व पर आपके विचारों से मैं पूर्णतः सहमत हूं। यह सटीक और सार्थक हैं। दरअसल खुशवंत सिंह जैसे लेखकों की दिक्कत यह है कि इन्होंने अपने को सोच के एक तंग दायरे में कैद कर लिया है और ये सोचते हैं कि दुनिया उनके उसी दायरे तक सीमित है। यही वजह है कि इनकी लेखनी से कुछ सार्थक नहीं निकल पाता। ऐसा लेखन जो पढ़ने से जुगुप्षा पैदा करे और लोगों को उत्तेजित करे यही शायद इनके लिए महान (?) लेखन है। आपने सही लिखा कि सेक्स का उनका दर्शन समझ में नहीं आता। अगर उनके अनुसार दुनिया में यही सुख और शांति का आधार होता तो न आज इतनी अशांति और उत्पात होते और न ही युद्ध होते। पूरी दुनिया खुशवंत का यह मंत्र गांठ बांध लेती और चैन की नींद सोती। उन्हें यह समझना चाहिए कि दुनिया में और भी गम हैं जो तब तक कम नहीं होंगे जब तक हम मानव जीवन की प्रासंगिकता, उद्देश्य और वसुधैव कुटुंबकम के भाव को शाश्वत रूप में समझते और अपनाते नहीं। खुशवंत चाहे इस तरह के शिगूफे कितने भी छोड़ते रहें ये कुछ देर लोगों को गुदगुदायेंगे, रोमांचित करेंगे और काफूर हो जायेंगे। इस तरह का लेखन कालजयी हो ही नहीं सकता। अच्छे लेखन के लिए बधाई, बस ऐसे ही लिखते रहिए भाई।- ऱाजेश त्रिपाठी
jaki rahi bhavna jaisiiiiiiii
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