Tuesday 21 July, 2009

अमित बाबू, अच्छा है जो भारत में पैदा हुए


पिछले दिनों एक खबर मीडिया में छाई रही। खबर थी कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की ईश्वर से बात हुई है- वह भी ई-मेल से। यह इसी देश की जनता है जो कोई तर्क नहीं करती और मान लेती है कि बिग बी बड़े अच्छे आदमी है- ऊंचे संपर्क वाले हैं सो हो सकता है कि बात हुई हो। लोगों ने बड़ी गंभीरता से उन सवालों को भी पढ़ा जो बिग बी ने (कथित रूप से) भगवान से पूछे और जो जवाब भगवान ने उन्हें भेजा है।

अमित बाबू से बस यही कहना है कि अच्छा है जो वे भारत में पैदा हुए कि लोग यहां आंख बंद कर कुछ भी मान लेते हैं। तभी तो अपने महानायक की अनर्गल बातों को भी स्वीकार कर लेते हैं।अमिताभ ने बड़े साहित्यिक लहजे में अपने ब्लाग पर कहा है कि किस तरह से उनके सवालों का जवाब ई-मेल पर देते हुए ईश्वर ने उनसे कहा है कि किसी भी बंदे की कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती- ईश्वर उसे जरूर सुनते हैं। आगे वे लिखते हैं कि भगवान ने उन्हें समझाया कि इंसान को तनाव भरे दौर से गुजरना ही पड़ता है और कोई भी इन चुनौतियों से लड़े बिना जीवन की सुंदरता को नहीं पा सकता। अगर कोई व्यक्ति जीवन में संघर्ष नहीं करता तो वह सुंदरतम नहीं पा सकता। जीवन के सुंदरतम को पाने के लिए संघर्ष जरूरी है।

अच्छी बात है, पर तर्क से परे। न कोई पूछने वाला है, न सवाल करने वाला- इस देश को बिना तर्क लोगों को माथे पर बिठा लेने की आदत हो चुकी है। अपनी सोच को कहीं किनारे गिरवी रख अंधों की तरह किसी की भी पूजा शुरू कर देते हैं।क्या कोई अमिताभ से पूछेगा कि अगर उनकी ईश्वर से बात हुई तो उन्होंने राज ठाकरे और बाल ठाकरे की शिकायत क्यों नहीं की? उन्होंने ईश्वर को क्यों नहीं बताया कि ये लोग मुंबई में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को मारते-पीटते-गाली देते हैं? क्या उन्होंने इस बात के लिए ईश्वर से माफी मांगी कि बाल ठाकरे के गुंडों की मुंबई में ताकत की वजह से उन्हें ठाकरे को पितातुल्य कहना पड़ा था? ईश्वर तो उनके पिता (स्व। हरिवंश राय बच्चन) को भी जानते होंगे और बाल ठाकरे को भी? क्या उनके इस कृत्य के लिए ई-मेल कर भगवान ने उन्हें डांटा नहीं?

अमित बाबू से अनुरोध है कि वे इन सवालों का जवाब भले ही न दें पर इस देश और समाज की भलाई के खातिर ईश्वर का ई-मेल आईडी सार्वजनिक कर दें। अब जिसे भी कोई शिकायत होगी सीधे भगवान को मेल ठोक देगा। कोई घूस मांगेगा- कोई अधिकारी परेशान करेगा या कोई किसी का हक छीनेगा- अब तो सीधे भगवान को ई-मेल किया जाएगा। पूरे संसार में अब सिर्फ धर्म का राज होगा और किसी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा। सदी के इस महानायक से यह उम्मीद तो की जाती है कि वह अपने चाहने वालों को भगवान का ई-मेल आईडी तो दे ही देंगे।

Wednesday 8 July, 2009

माइकल से सीखिए मैनेजमेंट

इस दुनिया से माइकल जैक्सन अलविदा हो गए। लास एंजिल्स के स्टेपल्स सेंटर में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। मैं न तो माइकल के बड़े दीवानों में से हूं और न ही पश्चिम के संगीत का सुरूर मेरे सिर चढ़कर बोलता है। इन सभी दूरियों के बाद भी मैं माइकल की शख्सियत से कुछ सीखने की इच्छा रखता हूं। माइकल के व्यक्तित्व की जो सबसे अच्छी चीज है, वह चाहता हूं। यह चीज माइकल का गीत या संगीत नहीं बल्कि उनका शानदार मैनेजमेंट है।

इधर कुछ दिनों से माइकल जैक्सन के बारे में काफी कुछ पढ़ा-देखा और जाना भी। माइकल के कठिन बचपन के बारे में और उनसे जुड़े तमाम विवादों के बारे में भी। उनकी शादियों-तलाकों के किस्से हों या फिर बच्चों के यौन शोषण के आरोपों को लेकर उनका चर्चा में बने रहना- सब बातों और विषयों पर मीडिया में खूब छपा। तमाम नकारात्मक चर्चाओं के बाद भी माइकल का जादू कम नहीं हुआ। दुनिया भर में उनके चाहने वाले कम नहीं हुए।

आप माइकल जैक्सन के प्रशंसक हों या न हों... कोई बात नहीं, पर जरा माइकल को स्टेज पर थिरकते देखिए। देखिए कि वह इंसान स्टेज पर सिर्फ और सिर्फ गीत-संगीत को ही जीता था। उनके शरीर का कोई भी हिस्सा इसके इतर कुछ भी नहीं कहता था। एक-एक अंग की केमेस्ट्री सिर्फ और सिर्फ उनकी कला से ही जुड़ी थी।
इसे कहते हैं वो बात जो किसी भी इंसान को खास बना देती है- माइकल जैक्सन बना देती है। आप जहां भी हों- जो भी कर रहे हों उसमें पूरी तन्मयता जरूरी है। खुद को पूरी तरह से झोंक देना जरूरी है। काश... हम माइकल का यह मैनेजमेंट सीख पाते।

अलविदा माइकल... अलविदा।

Sunday 21 June, 2009

...तो भाजपा के भविष्य होते वरुण

एक बार फिर से वरुण गांधी के नाम पर सियासत तेज हो गई है। भाजपा के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन ने सीधी बात कह दी है। उन्होंने सीधे तौर पर पार्टी की हार के लिए वरुण गांधी को जिम्मेदार ठहराया है। वहीं मेनका गांधी ने अपने पुत्र के पाले में खड़े होकर कह दिया है कि उनके बेटे के माथे पर हार का ठीकरा फोड़ना ठीक नहीं है। इसी बीच हैदराबाद के लैब से फारेंसिक रिपोर्ट भी आ गई है। यह साबित हो गया है कि भड़काऊ भाषण देने का दोष वरुण पर है। सीडी असली है, कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। और उसमें आवाज असली वरुण की ही है।
अब थोड़ा पीछे चलते हैं। आठ मार्च को पीलिभीत में वरुण गाँधी ने एक समुदाय विशेष के खिलाफ अपनानजनक और भड़काऊ बात की। हंगामा हुआ। चुनाव आयोग ने मामले में अपनी सलाह दी। भाजपा से कहा गया कि वरुण को प्रत्याशी न बनाया जाए। अभी भाजपा मामले का विश्लेषण कर रही थी। तत्काल उसने इस मामले में कोई टिप्पणी नहीं की। एक ओर कट्टर हिंदुत्व की बात थी और दूसरी तरफ भाजपा का बदला हुआ चेहरा। यह वह चेहरा था जो विकास की बात ज्यादा करता था। पार्टी के रणनीतिकार चूक कर गए। उन्होंने आयोग की सलाह को दरकिनार करते हुए वरुण के साथ खड़े होने का फैसला किया।
सियासत के गलियारे की खबर रखने वालों को भी शायद ही भाजपा के इतने निराशाजनक प्रदर्शन की उम्मीद नहीं थी। सो, यह माना जाने लगा कि अचानक आकाश में चमका यह युवा सितारा भाजपा का भविष्य है। भाजपा में इस तरह के उत्साही लोगों को माथे पर बिठा लेने की परंपरा रही है। यह सच है कि अगर नतीजों ने भाजपा के रीढ़ की हड्डी न तोड़ दी होती तो वरुण टीवी स्क्रीन से लेकर अखबारों तक में चमकते रहते।
भाजपा से दो चूक हुई। एक तो उसने वरुण के मामले में आयोग की सलाह नहीं मानी और दूसरी प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह पर गैरजरूरी हमले किए। जनता इसे पचा न सकी और वह भाजपा के साथ नहीं रही। अगर भाजपा तभी आयोग की सलाह मान लेती तो देश भर में एक सकारात्मक संदेश जाता और नतीजे शायद इस तरह के नहीं होते। लेकिन शायद भाजपा की रणनीति बनाने वालों को लगा होगा कि वरुण तो राममंदिर जैसा जादू करने का माद्दा रखते हैं। बहरहाल चूक के बाद भाजपा में मंथन और सिरफुटव्वल का दौर अभी जारी है।

Wednesday 17 June, 2009

अखबार में कहीं जगह है?


अचानक ही करीब दस साल पुराना एक किस्सा याद आ गया। मैं उन दिनों अमृतसर शहर में अपने अखबार के लिए रिपोर्टिंग कर रहा था। अखबार उन दिनों पंजाब में नया था इसीलिए ज्यादा से ज्यादा खबर कवर करने को कहा गया था। इसका उद्देश्य यह था कि हम अपने अखबार से ज्यादा से ज्यादा संगठन और लोगों को जोड़ सकें। ज्यादा से ज्यादा खबर और ज्यादा से ज्यादा तस्वीरें हमारी कोशिश रहती थी।

पंजाब में सामाजिक संगठनों की भरमार है। हर दिन टेबुल पर प्रेस नोट का पुलिंदा पड़ा रहता था। अपनी खास खबरों और रूटीन की खबरों को निपटाने के बाद बारी होती थी प्रेस नोट की। एक ही फाइल में डेस्क के निर्देश के मुताबिक प्रेस नोट को निपटा दिया करता था। हर प्रेस नोट पर आधारित चार-पांच लाइनों की छोटी-छोटी खबरें बनाकर भेज देता था। ये खबरें सामान्यतः एक नजर में या फिलर के रूप में अपनी हैसियत के मुताबिक स्थान पा लेती थीं।

एक सामान्य रिपोर्टर की तरह मैं सुबह को आंख मलता हुआ दरवाजे तक जाता था। वहां पड़ा अखबार का बंडल लेकर बेड तक आता था और अपनी बाईलाइन या खास स्टोरी का डिस्प्ले देखकर नींद की अगली किस्त पूरी करने की कोशिश करता था। अगर खबरों को बेहतर डिस्प्ले मिलता था तब भी मारे खुशी के चैन की नींद नहीं आती थी और अगर खबरों की हत्या (?) हो जाती थी तब तो नींद का सवाल ही नहीं था।

बहरहाल सुबह से ही स्थानीय नेताओं और संगठन के उन लोगों के फोन आने लगते थे जो प्रेस नोट देकर गए थे। वे पूछते थे, भाई साहब, हमारी खबर नहीं लगी। खास खबरों के अलावा अब इन छोटी-छोटी खबरों को देख पाना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं हो पाता था। कई बार मैं बिना देखे ही उनसे कहता था, अरे... गौर से देखिए जरूर लगी होगी। वे देखने के बाद फिर मुझसे कहते, सर, नहीं लगी है। इसके बाद मैं मामला समझ जाता कि डेस्क के स्पेस मैनेजमेंट की वजह से हो सकता है कि खबर न लगी हो। इसके बाद मैं शिकायत करने वाले सज्जन से पूछता था, अखबार में कहीं खाली जगह है? वो थोड़ी देर अखबार देखकर और सोचकर कहा करते थे- नहीं। इसके बाद मैं तुरंत उनसे कहा करता था, अरे साहब... जब अखबार में जगह ही नहीं है तो खबर लगती कहां? जगह खत्म हो गई होगी सो नहीं लग पाई होगी- आज लग जाएगी।

पत्रकारिता से जुड़े लोग तो इस प्रैक्टिकल प्राब्लेम और डेस्क की सीमाओं को समझते हैं पर वे संगठन वाले बड़ी शिद्दत से मेरे पूछने पर अखबार में खाली जगह खोजने लगते थे।

Monday 15 June, 2009

रंग तो थोड़ा भी बहुत होता है


इस तस्वीर को देखा आपने? पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट तसवीर है। गूगल पर विचरण कर रहा था तो कहीं दिख गई। थोड़े से रंगों के समावेश से यह खास बन गई है। इतनी खास कि आपके चेहरे पर हंसी ले आई है। है न?

जीवन की सुंदरता रंग से है। महसूस करने पर है कि हम किस पहलू को किस नजरिए से देखते हैं। तमाम दर्द के बीच कुछ खुशी तलाशनी चाहिए। कुछ रंग जो बिल्कुल इस तसवीर जैसा इफैक्ट ला दे।

Sunday 14 June, 2009

बाल ठाकरे का दोगलापन


बात समझ में नहीं आयी। शिवसेना प्रमुख को राष्ट्र की चिंता हो रही है। उन्हें दर्द हो रहा है कि आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों को पीटा जा रहा है। वे चाहते हैं कि आईपीएल में आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को खेलने से रोका जाए।

यह उस बाल ठाकरे का दर्द है जिनके इशारे पर बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को महाराष्ट्र में जानवरों की तरह पीटा जाता है। इन्हीं के नक्शे कदम पर उनके भतीजे राज ठाकरे भी चल रहे हैं। इसे ठाकरे का दोगलापन न कहें तो और क्या कहें।

जरा गौर से देखिए तो आस्ट्रेलिया में नस्लीय भेद विवाद का मूल है। महाराष्ट्र में भाषाई और इलाका विशेष को लेकर जहर फैलाया जा रहा है। फैला कौन कहा है? कौन है जो इन मुद्दों की दुकानदारी कर रहा है। चाचा और भतीजे में इस बात को लेकर होड़ मची रहती है कि इस बार बाहरी राज्य के छात्रों को किसने शिकार बनाया। ये कैसी सोच है?

अगर बात राजनेताओं तक सीमित रह जाए तो और बात है पर यह सब समाज में गहराई तक फैलता जा रहा है। बुद्धिजीवी तबका भी इससे वंचित नहीं है। पिछले दिनों पुणे ला इंस्टीट्यूट के लिए इंटरव्यू देने को बिहार के विद्यार्थी महाराष्ट्र पहुंचे थे। उनसे इंटरव्यू बोर्ड में शामिल लोगों ने बेहुदे सवाल पूछे। पूछा गयाः- क्या आप इस बात से सहमत हैं कि बिहार देश का क्राइम कैपिटल है? आगे पूछा गयाः- क्या बिहार के लोग अपराध को अंजाम देने के मकसद से यहां नहीं आते? बात यहीं खत्म नहीं हुई। आगे पूछा गयाः- क्या बिहार के बारे में राज ठाकरे की मानसिकता से आप सहमत हैं? ये कौन से सवाल हैं? इन सवालों की सार्थकता क्या है? औचित्य क्या है?

बिहारियों ने तो पूरी दुनिया में परचम लहराया है। क्या हर जगह वे अपराध को अंजाम देने जाते हैं? अगर इस तरह की बात है तो पूरी पुलिस फोर्स को बिहार में लगा देना चाहिए। देश के अन्य हिस्सों में इसकी जरूरत ही क्या? महाराष्ट्र में तो बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। क्यों? क्या इंटरव्यू लेने वाले कुंठित और घटिया मानसिकता वाले सज्जन इन बातों का जवाब दे पाएंगे?

अगर बात टपोरी टाइप के राज ठाकरे और बाल ठाकरे जैसे लोगों की हो तो चिंताजनक नहीं है पर अगर बौद्धिक समाज को यह रोग लगता जा रहा है तो यह ठीक भविष्य का संकेत नहीं है। राष्ट्र और समाज की बात ठाकरे जैसे लोग अगर न करें तो बेहतर है। मैं यह भी नहीं समझ पाता कि ये लोग मराठी मामलों की भी दुकानदारी कैसे कर लेते हैं? मुंबई में हमला हुआ। दुनिया सिहर उठी। ये तथाकथित मराठी अस्मिता के ठेकेदार कहीं नजर नहीं आ रहे थे। सड़क पर गुंडों की फौज को दौड़ाने से देश नहीं चलता- समाज नहीं बनता। इस तरह के लोगों को सड़क पर दौड़ाकर पीटा जाना चाहिए- उन्हीं के अंदाज में।

Wednesday 20 May, 2009

जरा पढ़िए बिहार के संदेश को...


चुनाव खत्म हुआ- नतीजे भी आ गए। इसे लेकर व्याख्या करने का दौर जारी है। खुद को कभी इस देश का प्रधानमंत्री देखने वाले लालू जी की हालत देखते ही बन रही है। कांग्रेस को चुनाव से पहले आंख तरेरने वाले लालू यादव को जनता ने इस तरह पटका है कि वे बिना मांगे ही समर्थन देने के लिए दिल्ली की गली में घूम रहे हैं। कांग्रेस उन्हें बुला नहीं रही है और वे कह रहे हैं कि उनके साथ ठीक व्यवहार नहीं हो रहा है। ये होती है जनता की ताकत... इसे कहते हैं जनादेश। वह सिर्फ सत्ता का आशीष ही नहीं देती बल्कि धूल भी चला देती है।

बिहार में जो वोटिंग हुई है वह इस बार किसी जात-पात के नाम पर नहीं है। चुनावी विश्लेषकों को भी यह मानना ही होगा कि यह वोट सिर्फ विकास के नाम पर है। नीतीश का जो परचम लहराया है वह विकास पर मुहर है उस जनता का जिसे मूर्ख माना गया और उसका भावनात्मक दोहन किया गया। लालू जिस जाति- जिस वर्ग की राजनीति करते रहे उसकी बदहाली की कोख से भी विद्रोह पैदा हुआ। यह उसकी भी अनुगूंज है।

बिहार का होने की वजह से इस बदलाव को मैंने भी महसूस किया है। अपने शहर पूर्णिया से पचास किलोमीटर दूर अपने गांव जाने में मुझे तीन से चार घंटे लगते थे। अब वह सफर पैंतालीस मिनट में बिना कष्ट के पूरा होता है। पहले हम शाम को अपने गांव जाने से परहेज करते थे- कानून व्यवस्था की स्थिति गड़बड़ थी। इसमें भी सुधार आया है। जब बिहार जाता हूं तो लोगों से चर्चा होती रहती है। नीतीश की जाति कम लोगों को पता है जबकि लालू की सबको पता थी। जिस वर्ग के लालू जी ठेकेदार बनते थे उसे समाज में अधिकार के नाम पर सिर्फ गुंडई और विद्रोह सिखाया गया। उस वर्ग को यह सिखाया गया कि वह नंगा नाचे तो कोई बात नहीं, सरकार उनकी ही है। मंच से खुलेआम गुंडों-मवालियों को सम्मानित किया गया। यह कैसा सामाजिक आंदोलन था और लालू किस तरह का समाज बनाना चाहते थे समझ से बाहर था। मंच से लाठी का प्रदर्शन किया गया जैसे लोग भेड़-बकरी हों। जनता ने बता दिया कि लाठी ताकतवर नहीं होता। उन्हें लाठी की यह संस्कृति मंजूर नहीं है।

बहरहाल, बिहार की जनता ने यह साबित किया है कि उसकी मजबूरियों का गलत फायदा उठाकर कोई सत्ता की दुकानदारी नहीं चमका सकता। अगर वह सत्ता शीर्ष पर बिठाना जानती है तो जमीन भी दिखा देती है। कभी जीत का रिकार्ड बनाने वाले रामविलास पासवान की शक्ल देखिए कई बार तो पहचाने नहीं जाते। एक बिहारवासी होने के नाते मुझे इस जनादेश पर संतोष हो रहा है। हमने लालू जैसे लोगों को राजनीति की सीढ़ी चढ़ते देखा और एक सुंदर समाज को तार-तार होते हुए देखा है।

बिहार की कोख से तो कई आंदोलन पैदा हुए हैं। जरूरत एक और आंदोलन की है। बेहतर हो बिहार कुछ सार्थक इतिहास लिखने का साहस करे। एक कदम तो बढ़ा ही है। इसका स्वागत करना चाहिए।

Sunday 17 May, 2009

चलो चलते हैं...


आओ...

चलो चलते हैं।

फिर से

उसी नदी के किनारे,

जहां बुने थे

हमने

अपने लिए कुछ सपने।

वो सपने

जो नहीं हुए पूरे,

शायद

होने भी नहीं थे।

मैं फेंकता था

पत्थर

और

कहता था तुम्हें...

वो देखो...

मैं दिखाता था

तुम्हें

पानी में बनते वलय

और

तुम देखा करती थी

उनका गुम हो जाना...।

Saturday 9 May, 2009

ये राहुल तो बड़े सयाने हैं...


राहुल का पंजाब दौरा उनके सियासी समझ की शार्पनेस दिखाता है। भारतीय राजनीति में गांधी परिवार की आलोचना करने और राहुल को बच्चा बताकर खारिज करने वालों को पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। इस चुनाव में राहुल ने जिस अंदाज और जिस तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज की है उससे यह तो तय है कि अगला चुनाव राहुल के नाम पर ही होगा। राजनीति की डगर पर उनके कदम का अंदाज इस बात को मजबूती प्रदान करता है।

पंजाब में राहुल ने सिख प्रधानमंत्री के नाम पर खूब राजनीति की। पंजाबियों को इसी मुद्दे पर अपने साथ लाने की कोशिश की। उन्होंने मनमोहन सिंह को शेर-ए-पंजाब बताया और कहा कि यह एक सिख नेतृत्व की बात है। जनता इस बात पर उनका साथ दे कि दो प्रतिशत आबादी का नेतृत्व कर रहे एक सिख को उन्होंने अपना नेता माना है- देश का नेता माना है। यह सिखों के जज्बे की बात है। मनमोहन को कमजोर बताने वाले आडवाणी पर भी उन्होंने खूब हमले किए। कहा, ये मजबूत लोग कहां थे जब संसद पर हमला हुआ? ये मजबूत लोग कहां थे जब कंधार में आतंकियों को छोड़ा जा रहा था। इसके बाद फिर वे मनमोहन और सिख की बात करने लगे। कहा, मैं पूरे देश में घूमा हूं। मुझे कहीं भी कोई कमजोर सिख नजर नहीं आया। मनमोहन के दहाड़ की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इसी के आगे मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान को घुटने टेकने पड़े और सहयोग करना पड़ा। इतना ही नहीं, सिख कौम की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि देश पर जब भी संकट आया है इस कौम ने कुर्बानी देकर देश को बचाया है। ...देखिए राहुल का सियासी सयानापन।

जब राहुल लुधियाना पहुंचे तो उन्हें पंजाब के अलावा बिहार और उत्तर प्रदेश वासियों की भी याद आ गई। ध्यान दें कि लुधियाना में इन दोनों प्रांतों के लोगों के करीब पौने दो लाख वोट हैं। यहां राहुल ने कहा, कांग्रेस के खिलाफ प्रचार में जुटी एनडीए की सहयोगी पार्टियां महाराष्ट्र में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों पर अत्याचार कर रही है। इस तरह के तत्वों को जवाब दिया जाना जरूरी है। तो देखा आपने... राहुल के अंदाज को?

इतना तो स्पष्ट है कि राहुल इस देश में सत्ता पर कब्जा करने के फंडों की खूब समझ रखते हैं। तभी तो उन्हें सिखों से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश तक की याद चुनावी मंच से आ रही है। अब उन्हें बच्चा बताकर खारिज करने का वक्त इतिहास की बात हो गई।

(फोटोः पीटीआई से साभार)

Wednesday 6 May, 2009

खुशवंत सिंह का सामाजिक सरोकार


जब मैं छोटा था और पत्रकारिता में आने की सोच रहा था तो कुछ खास बड़े नामों को लगातार पढ़ता था। कुछ लोग मुझे तब भी पढ़कर समझ में नहीं आते थे। उस वक्त मुझे लगता था कि इन लोगों के लेखन के स्तर का शायद मैं हूं ही नहीं इसीलिए मेरी समझ में नहीं आता है। जब बड़ा हो जाऊंगा तो खुद ही समझने लगूंगा। अब मैं बड़ा हो गया हूं। पत्रकारिता के प्रोफेशन में भी हूं पर मुझे आज भी वे लोग समझ में नहीं आते। इसी बहाने जिक्र करना चाहूंगा महान पत्रकार खुशवंत सिंह का। उनके लेखन में सेक्स और दारू के असामयिक और बेमौसम जिक्र के सामाजिक आस्पेक्ट पर मैं हर बार सोचता हूं पर मेरी समझ में नहीं आता। मैं सोचता हूं इसीलिए कि किसी बड़े नाम को इतनी आसानी से खारिज भी तो नहीं किया जा सकता। समाज का एक बड़ा तबका उन्हें समझता है (शायद) और सम्मान देता है। मुझे एक बार फिर लगने लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है, शायद कि मेरी समझ ही छोटी है।
खुशवंत सिंह को पढ़ता हूं तो मेरी छोटी मानसिकता में यही समझ आता है कि सेक्स से समाज की हर समस्या का समाधान है। अगर कोई सेक्स को इंज्वाय कर ले तो वह समाज के लिए सार्थक हो जाएगा। उसके जीवन में कुछ इस तरह का घटित हो जाएगा कि रातों रात उसका अपने मूल्यों से परिचय हो जाएगा और वह दुनिया को बहुत कुछ देने लायक बन जाएगा। उसे इस दुनिया में आने का उद्देश्य पता लग जाएगा। ...आपको बात अटपटी लग रही होगी क्योंकि मैं लिख रहा हूं, है न? जी नहीं, ये विचार हैं महान पत्रकार खुशवंत सिंह के
पिछले दिनों उन्होंने अपने एक कालम में लिखा कि साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती, प्रग्या ठाकुर और मायाबेन कोडनानी जहर उगलती हैं। आगे उन्होंने लिखा है कि, ये चारों देवियां जहर उगलती हैं और मेरा मानना है कि ये सब सेक्स से जुड़ा है। उसे लेकर जो कुंठाएं होती हैं, उससे सब बदल जाता है। अगर इन देवियों ने सहज जिंदगी जी होती तो उनका जहर कहीं और निकल गया होता। अपनी कुंठाओं को निकालने के लिए सेक्स से बेहतर कुछ भी नहीं है।... क्या अजीब सा दर्शन है न?
खुशवंत सिंह के लेख के सामाजिक आयाम को मैं तलाशता रहता हूं पर ज्यादा वक्त मेरे हाथ खाली होते हैं। मैं समझ ही नहीं पाता हूं कि उनके लिखने का और उसे छापे जाने का क्या अर्थ है। अब यहां इन महिलाओं का जिक्र क्यों किया और वे क्या कहना चाहते हैं, मेरी तो समझ में नहीं आया। इसके बाद जवाब में उमा भारती ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी। इस चिट्ठी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए खुशवंत जी ने अपने अंदाज में एक और लेख लिखा। इस लेख में वे लिखते हैं- उमा ने मुझे औरतों के खिलाफ साबित किया है। काश... यह सच होता। मैं तो औरतों को चाहने के चक्कर में बदनाम हूं। मुझे पूरा यकीन है कि अगर मैं उनके आसपास होता तो उन्होंने मुझे थप्पड़ रसीद दिया होता। जैसा उन्होंने एक समर्थक के साथ किया था। बाद में गुस्सा उतरने पर मुझे किस भी किया होता।... ये कैसी सोच है खुशवंत की?
अब जरा सोचिए कि जिन महिलाओं का जिक्र उन्होंने किया है और उस मामले में उन्होंने जो समाधान बताया है... क्या आप उसे तार्किक मानते हैं? क्या सेक्स में डूबकर समाज में मधुरता घुल जाएगी? समाज की सारी कटुता और कुंठा खत्म हो जाएगी? अगर उमा ने खुशवंत जी के बेहूदे सोच पर उन्हें थप्पड़ लगा दिया होता तो कौन सी राष्ट्रीय आपदा पैदा हो जाती? क्या फर्क पड़ता है इससे कि खुशवंत औरतों के चक्कर में बदनाम हैं? क्या आपको उमा भारती से खुशवंत सिंह के किस के एक्सपेक्टेशन में कुछ सार्थक नजर नजर आता है? इस महान पत्रकार की सामाजिक सोच क्या है? उसके लेखन की सार्थकता क्या है? मुझे उम्मीद है कि जिस साथी को ये सब समझ आए वो मेरा मार्गदर्शन जरूर करेंगे।

Sunday 3 May, 2009

याद आते हैं बाबा नागार्जुन


मौसम चुनाव का है। इस मौसम में बाबा नागार्जुन बरबस ही याद आ जाते हैं। इस बीमार व्यवस्था पर उन्होंने अपनी लेखनी से खूब प्रहार किए थे। अपनी एक कविता में उन्होंने राजनेताओं को खूब नसीहत दी है। सच न बोलना... शीर्षक से इस कविता के कुछ अंश नीचे दिए जा रहे हैं...

सच न बोलना


छुट्टा घूमें डाकू-गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,

देखो हंटर भांज रहे हैं जस के तस जालिम सारे।

जो कोई इनके खिलाफ अंगुली उठाएगा, बोलेगा,

काल कोठरी में जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा।

माताओं, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं,

बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं।

मारपीट है, लूटपाट है, तहस-नहस बर्बादी है,

जोर-जुलम है, जेल सेल है- वाह खूब आजादी है।

रोजी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,

कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा।

नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ करेंगे कभी नहीं,

जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं।

सपने में भी सच न बोलना, वरना पकड़े जाओगे,

भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचे, मेवा-मिसरी पाओगे।

माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजदूर-किसानों का,

हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का।

Thursday 30 April, 2009

नेता जी की उम्र कितनी?

एक मित्र ने एक सवाल पूछा। उन्होंने पूछाः- नेता जी की उम्र कितनी होती है? मैं उसके सवाल को समझ न सका। उसने समझाते हुए इसका जवाब दिया और कहाः- जब एक नेता मरता है तो वह उसके तीस साल बाद तक कम से कम जिंदा रहता है। मैंने सवाल कियाः- वो कैसे? मित्र ने आगे समझाया, देखो... एक तो वह खुद सत्ता का सुख भोगता है और उसके बाद कम से कम दो पीढ़ी तो इस सुख को भोगती ही है। उसकी तीसरी पीढ़ी भी अपने दादा के नाम पर टिकट पर अपना हक जताती है। इस तरह से एक नेता अपनी मौत के तीस साल बाद तक कम से कम जिंदा रहता है।

Thursday 23 April, 2009

एक हैं ओझा जी


अगर आपका वास्ता ओझा जी से पड़ जाए तो आप उन कुछ खुशनसीब लोगों में शामिल हो जाएंगे जो शायद हंसी के खजाने का रास्ता जानते हैं। मेरा वास्ता ओझा जी से पड़ा है। जो कह रहा हूं वह अल्प समय में उनके साथ रहने का अनुभव है- एक बिंदास इंसान।रिश्ता उनका भी खबरों की दुनिया से ही है और हमारी मुलाकात भी प्रोफेशनल लाइफ के एक मोड़ पर ही हुई थी। आजकल वे आई-नेक्सट अखबार, लखनऊ में जिम्मेदार पद पर कार्यरत हैं।बात उन दिनों की है जब राजीव ओझा जी अमर उजाला चंडीगढ़ से जुड़े हुए थे। दैनिक जागरण में करीब सात साल काम करने के बाद मैं भी अमर उजाला की चंडीगढ़ यूनिट से जुड़ गया था। मैं दफ्तर में नया-नया था। हर तरफ केबिन में संपादकीय विभाग के वरिष्ठ लोग बैठे थे। इनमें से एक केबिन में ओझा जी भी विराजमान थे। दूर से देखने में काफी गंभीर लगते थे। कान में कंप्यूटर से जुड़ा चोंगा (हेड फोन) लगाए रहते थे। उस वक्त मेरा ज्यादा लोगों से परिचय नहीं था सो मैंने सोचा कि सबसे वरिष्ठ और समझदार अधिकारी शायद यही हैं। मैंने इस तरह की बात इसीलिए सोची क्योंकि उनके कान में चोंगा रहता था जो औरों के कान में नहीं था। बाद में जब ओझा जी से दोस्ताना संबंध कायम हो गया तो मैंने एक दिन उन्हें यह किस्सा सुना दिया। वे खूब हंसे और बोल पड़े, क्यों महाराज... मैं समझदार नहीं हूं क्या? यही अंदाज ओझा जी को खास बना देता है। भीड़ से अलग खड़ा कर देता है।जब मैं चंडीगढ़ में नया-नया था और ओझा जी के गैंग में शामिल हो गया तो रोज घड़ी देखकर बारह बजे उनका फोन आ जाता। वे कभी फोन पर कभी मुझे हेलो नहीं कहते थे। कहते थे- कि करय छियै?। मतलब- क्या कर रहे हैं। मैं बिहार का मैथिल ब्राह्मण हूं। मैथिली के राज से परदा हटाते हुए ओझा जी ने बताया कि छात्र जीवन या शायद शुरूआती व्यावसायिक जीवन में उनका कोई मैथिल मित्र था जिससे उन्होंने मैथिली सीखी थी। जहां तक मैं समझ सका कि मैथिली के नाम पर उनकी कुल जमा पूंजी- कि करय छियै? ही थी। पर किसी के दिल पर दस्तक देने का ओझा जी का अंदाज देखिए। आज भी हमारी बात मैथिली से ही शुरु होकर हिंदी तक पहुंचती है। बहुत दिन तक अगर हमारी बात न हुई हो तो मैं एक मैसेज करता हूं। लिखता हूं- कि करय छियै?। उधर से उनका फोन आता है और पहले तो आधे मिनट खूब हंसते हैं। फिर बात होती है।हां, तो बात हो रही थी बारह बजे ओझा जी के आने वाले फोन की। उनके फोन के बाद मैं तत्काल आफिस पहुंच जाता था। इसके बाद हम निकल पड़ते किसी गली- किसी मोड़ पर चाय पीने। इसी दौरान देश-समाज की बात होती रहती। कई बार हम अनजाने रास्तों पर भी निकल पड़ते थे। एक बार हम मोरनी जा रहे थे। रास्ता पहाड़ वाला सर्पीला था। वे मेरी मोटरसाइकिल के पीछे बैठे थे। रास्ते में अगल-बगल बंदरों का झुंड मिल जाया करता था। वे जब भी किसी बंदर को देखते तो बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह उसे छेड़ दिया करते थे। मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं अगर बंदरों ने झपट्टा मार दिया तो? ओझा जी ने मुझसे पूछा, क्यों महाराज डरते हैं का? हमने कहा, अगर बंदरों के झुंड ने हमला कर दिया तो? अब ओझा जी भी हमसे सहमत हो गए थे। कहा, हां महाराज ई तो ठीक्के कहते हैं।भावनाओं पर भी भूगोल हावी हो जाता है जनाब...। काश... लखनऊ पास होता।

Tuesday 21 April, 2009

हमारे जीवन का पारसमणि

कई बार जब आप अपने जीवन को गौर से देखेंगे तो बड़े अजीब से अनुभवों के रास्ते से गुजर रहे होंगे। जब आप अपनी यात्रा और उपलब्धियों का हिसाब-किताब करेंगे तो शायद आप बेचैन हो जाएं। इस तरह की बात जीवन के पारसमणि से दूर रहने की वजह से होती है। यह बेचैनी पारसमणि को न पा सकने की सोच के कोख से पैदा होती है। बस कई बार शायद पर्याप्त उद्यम के अभाव में हम चूक जाते हैं।
पाओलो कोएलो की लिखित पुस्तक अलकेमिस्ट में बड़े सुंदर तरीके से यह बात समझाई गई है। इस पुस्तक में मेल्विजेडेक नाम का एक पात्र है।
सेंटियागो नाम के गड़ेरिये से संवाद के क्रम में वह एक कहानी सुनाता हैः- अभी पिछले हफ्ते मुझे एक खान मजदूर के सामने जाना पड़ा, एक पत्थर के रूप में। वह मजदूर अपना सब कुछ छोड़कर पारसमणि जैसे रत्न की खोज में निकल पड़ा था। पूरे पांच साल तक उसने पत्थरों को खोदा, उलट-पलटकर देखा, मगर उसे रत्न नहीं मिला। तब एक वक्त आया कि उसने पारसमणि की तलाश छोड़ देने का इरादा लिया। और वह भी उस समय जब वह मात्र एक पत्थर को उठाकर देखता तो उसे बेशकीमती रत्न मिल जाता। बेहद करीब आकर उसका धैर्य जवाब दे गया। चूंकि वह मजदूर अपना सब कुछ त्याग करके आया था सो मैंने एक पत्थर का रूप धारण किया और लुढ़कता हुआ उसके पैरों से जा टकराया। वह मजदूर विफलता से परेशान हो चुका था सो उसने उस पत्थर को उठाया और दूर फेंक दिया। एक अन्य पत्थर से टकराकर वह टूट गया और बीच से निकला दुनिया का सबसे खूबसूरत रत्न- पारसमणि।
इस कहानी का जिक्र सिर्फ इसलिए कि हम सबके जीवन में पाससमणि है। जीवन की सार्थकता, उसकी पूर्णता... पासमणि से ही है। जीवन का उद्देश्य पारसमणि को पाना ही है। यात्रा चलती रहनी चाहिए। थकना नहीं हैः- पारसमणि जो पाना है। चरैवेति... चरैवेति...।

Thursday 16 April, 2009

ये हैं गांधीगीरी वाले मुन्ना भाई...


यह देश की राजनीति का विद्रूप चेहरा है। यह नैतिक पतन की एक बानगी है। यह सब शर्मसार करने वाला है।

संजय दत्त यानी संजू बाबा को तो आप जानते ही होंगे... वही मुन्ना भाई एमबीबीएस वाले। ये वही संजय हैं जिन्होंने गुलाब हाथ में लेकर देश को गांधीगीरी का फंडा सिखाया था। परदे पर नौटंकी का यह फार्मूला इतना हिट हुआ कि लोग हर चौक-चौराहे पर देश भर में लोग हाथ में गुलाब लेकर गांधीगीरी को निकल पड़े। माहौल कुछ इस तरह बना कि देश में क्रांति आने वाली हो। खोखले और तथाकथित बुद्धिजीवियों की जमात ने संजू को माथे पर बिठा लिया। गांधी के दर्शन से कोई सरोकार न रखने वाले संजय को लोग गांधी का दूत समझने लग गए।

लेकिन परदे के चेहरे और जमीन की हकीकत में फर्क होता है। देर-सवेर यह लोगों के सामने भी आ ही जाता है। जल्द ही लोगों के सामने आ गया कि गांधी की टोपी मात्र पहनने से कोई शख्स गांधी नहीं बन जाता- नहीं बन सकता। उत्तर प्रदेश में एक चुनावी रैली के दौरान संजय दत्त ने कहा कि उन्हें पुलिस वालों ने गिरफ्तार करने के बाद बहुत मारा। उन्हें सिर्फ इसीलिए मारा गया क्योंकि उनकी मां मुसलमान थीं। बड़ी अजीब सी फिलोसफी है न ये? इस देश को शायद मुन्ना भाई यह भी समझाने की कोशिश करें कि उन्हें गिरफ्तार इसीलिए किया गया क्योंकि उनकी मां मुसलमान थीं। पूरा देश- पूरी दुनिया जानती है कि संजू को किन कारगुजारियों की वजह से उन्हें गिरफ्तार किया गया था। उनकी यह बयानबाजी राजनीतिक घटियापन का एक उदाहरण मात्र है।

अभी कुछ ही दिनों पहले संजू ने एक और घटिया बयान दिया था। उन्होंने अपनी पिता की मौत पर भी सियासी रोटी सेंकने की कोशिश की थी। संजय ने कहा था कि उनके पिता सुनील दत्त की मौत इसीलिए हुई कि संजय निरूपम को कांग्रेस में ज्यादा तवज्जो दी जा रही थी और उनके पिता को इग्नोर किया जा रहा था। इसी वजह से दत्त साहब तनाव में थे और उनकी मौत हो गई। ...क्या यह बेहूदा और बचकाना तर्क आपकी समझ में आता है? मैं यहां संजय निरूपम के साथ खड़ा हूं। उन्होंने संजू की इस बात पर मीडिया से मुखातिब होकर कहा था कि, मरहूम सुनील दत्त तो संजू के कृत्यों की वजह से परेशान रहा करते थे। उनकी सबसे बड़ी परेशानी तो संजू ही थे।

अब जरा सोचिए...। संजू इस तरह की बात आखिर क्यों कर रहे हैं? ये सियासत के दलदल में पतन की पराकाष्ठा की एक कहानी मात्र है। संजय ने मुस्लिम मां वाला बयान सिर्फ इसीलिए दिया क्योंकि वे मुस्लिम समुदाय को इमोशनली ब्लैकमेल करना चाहते थे। समाज में इस तरह से विष फैलाने वाले को रोकने का वक्त है। अभी समय जनता का है। हमे इस तरह की व्यवस्था- इस तरह के व्यक्ति को इनकार करना चाहिए।

Tuesday 14 April, 2009

ये बदजुबान नेता और ये बेशर्म राजनीति


बड़ी बेशर्मी महसूस होती है जब ये लगता है कि हमें कुछ बेशर्म और बदजुबान लोगों में से किसी को चुनकर अपना भाग्य निर्माता बना देना है। संतोष भी होता है तब जब इस तरह के लोगों को जनता भी उनके ही अंदाज में गरियाते हुए खदेड़ देती है। इन सब बातों से यह तो तय है कि चीजें इस तरह नहीं चलेंगी, नहीं चलनी चाहिए।

बदलाव का वक्त आ गया है। कहीं न कहीं सुगबुगाहट भी है और जनता अपने तरीके से इस बात का संकेत दे रही है। हाथ काटने की बात कहने वाले वरूण और रोलर के नीचे कुचलने की बात करने वाले लालू को यह सोचना ही होगा कि देश उनके तौर तरीके से नहीं चलेगा।

थोड़ा पीछे चलेंगे। पीलीभीत में वरूण ने जो जहर उगला वह अनायास नहीं रहा होगा। एक सुनियोजित सियासी सोच इसके पीछे रही होगी। विदेशों से ऊंची डिग्री लेकर आए वरूण इतने बच्चे और मासूम भी नहीं हैं कि उन्हें इसके दुष्प्रभाव का अंदाजा न रहा हो। वरूण के बयान पर जब बवाल हुआ तो अचानक भाजपा समझ न सकी कि उसे क्या स्टैंड लेना है। पहले वह कहती रही कि अभी वह वरूण के बयान का अध्ययन कर रही है। पार्टी के वरिष्ठ नेता मीडिया से कन्नी काटते रहे। लेकिन भाजपा को जल्द ही लग गया कि खामोशी से तो उसे घर से घाटा हो जाएगा सो वरूण के समर्थन में कूद पड़ी। बहरहाल, लालू ने नहले पर दहला दे मारा। बिहार के किशनगंज में (यह मुस्लिम बहुल इलाका है) लालू ने सारी सीमाएं पार कर दी। उन्होंने कहा कि अगर वे गृहमंत्री होते तो वरूण को रोलर के नीचे कुचलवा देते। लालू जी को यह ध्यान शायद नहीं रहा कि इस देश की व्यवस्था उनकी बपौती नहीं है और डेमोक्रेटिक सिस्टम में इस तरह की कार्रवाई की इजाजत नहीं है। फिर इस तरह के बयान का क्या औचित्य है? क्या सिर्फ एक समुदाय विशेष को इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए? देश को चाहिए कि वरूण और लालू दोनों को इनकार करे। इस तरह के बयान और बातों को हतोत्साहित किया जाए, किया जाना चाहिए।

लेकिन जब एक बार बदजुबानी शुरू हो गई तो भला कौन रूकने वाला है। हर नेता को पता है कि ताली बजाने वालों की एक भीड़ इस देश में भेंड़-बकड़ी की तरह मौजूद है। भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कांग्रेस को बुढ़िया कह दिया। प्रियंका गांधी ने कांग्रेस की तरफ से सवालिया लहजे में इसका जवाब दिया और पत्रकारों से ही पूछा, क्या मैं बुढ़िया लगती हूं? मोदी रूके नहीं। उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, ठीक है। अगर कांग्रेस वालों को बुढ़िया वाली बात पसंद नहीं है तो मैं बुढ़िया नहीं कहूंगा। यह कहूंगा कि कांग्रेस तो गुड़िया की पार्टी है। अब जरा सोचिए। ये बुढ़िया और गुड़िया की बहस से देश का कौन सा भला होना है? एक परिपक्व राजनेता इस तरह की निरर्थक बात क्यों कर रहा है? अजीब सी नौटंकी चल पड़ी है पूरे देश में। एक और बददिमाग कांग्रेसी नेता इस चर्चा में कूद पड़ा। उसने मर्यादा की सारी सीमां लांघ दी। उसने कहा, भाजपा को चाहिए कि अटल और आडवाणी जैसे लोगों को अरब सागर में डाल दे। देश उम्र से नहीं अंदाज से चलता है। चुनाव का वक्त है। हमें भी चाहिए कि हम प्रगतिशील सोच वाला कोई प्रतिनिधि चुनें (अगर संभव हो तो) ताकि एक बेहतर भविष्य की उम्मीद तो बने।

Saturday 28 March, 2009

आइए भूल जाएं बापू के सपनों को...



बात थोड़ी अटपटी लगती है। सीधी सपाट बातें हमेशा अटपटी ही लगती है शायद। देश एक बार फिर से लोकतंत्र के महापर्व की तैयारी कर रहा है। जनता एक बार फिर से सरकार चुनेगी और देश की किस्मत में लिखी जाएंगी फिर वही पुरानी कहानियां। देश के इस भविष्य को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही भांप लिया था। एक तरह से कह सकते हैं कि वे जान चुके थे कि यह देश उनके सपनों की- उनकी सोच की कब्रगाह बनने जा रही है।


महान स्वतंत्रता सेनानी महावीर त्यागी ने एक पुस्तक लिखी है- वे क्रांति के दिन। इसमें उन्होंने गांधी जी से जुड़ी कई बातें लिखी है। उन्होंने लिखा है... १४ मई १९४७ को बापू काफी थके हुए थे। उनकी तबीयत भी थोड़ी गड़बड़ चल रही थी। डा. विधानचंद्र राय उनसे मिलने आए और कहा, यदि अपने लिए नहीं तो जनता की अधिक सेवा करने के लिए ही सही पर क्या आराम करना आपका धर्म नहीं बन जाता? बापू बोले, हां, यदि लोग मेरी कुछ भी सुनें और मैं लोगों के किसी उपयोग का हो सकूं तो... पर अब मुझे नहीं लगता है कि मेरा कोई उपयोग है। भले ही मेरी बुद्धि मंद हो गई हो फिर भी संकट के इस काल में आराम करने की बजाए करना या मरना ही पसंद करूंगा। मेरी इच्छा बस काम करते-करते और राम रटन करते-करते मरने की है। मैं अपने अनेक विचारों में बिल्कुल अकेला पड़ गया हूं। फिर भी ईश्वर मुझे साहस दे रहा है।


देश में सरकार बनने के बाद जनसेवकों से रहन-सहन से भी बापू दुखी रहा करते थे। एक बार प्रार्थना करने के वक्त बापू ने कहा था कि, स्वतंत्रता का जो अमूल्य रत्न हमारे हाथ आ रहा है, मुझे डर है कि हम उसे खो बैठेंगे। स्वराज्य लेने का पाठ तो हमें मिला परन्तु उसे टिकाए रखने का पाठ हमने नहीं सीखा। अंग्रेजों की तरह बंदूकों के जोर पर हमारी राज्य सत्ता नहीं चलेगी। आशंका है कि जनसेवा की बात करने वाले ही जनता को धोखा देंगे और सेवा करने की बजाए उसके मालिक बन जाएंगे या मालिकों की तरह ही व्यवहार करेंगे। मैं शायद जीऊं या न जीऊं परन्तु इतने वर्षों के अनुभव के आधार पर चेतावनी देने की हिम्मत करूंगा कि देश में बलवा मच जाएगा, सफेद टोपी वालों को लोग चुन-चुनकर मारेंगे और कोई तीसरी सत्ता उसका लाभ उठाएगी।


१९ अप्रैल १९४७ को जब बिहार का मंत्रिमंडल बापू से पटना में मिलने आया तो पटना में बापू ने कुछ अपने विचार भी रखे। उन्होंने बताया कि मंत्रिमंडल के सदस्यों और गवर्नरों को कैसे रहना चाहिएः-


मंत्रियों और गवर्नरों को यथासंभव स्वदेशी वस्तुएं ही काम में लानी चाहिए। उनको और उनके कुटुंबियों को खादी पहनना चाहिए और अहिंसा में विश्वास रखना चाहिए।


उन्हें दोनों लिपियां सीखनी चाहिए पर जहां तक संभव हो आपसी बातचीत में अंगेजी का व्यवहार नहीं करना चाहिए। सार्वजनिक रूप से हिंदुस्तानी और अपने प्रांत की भाषा का ही उपयोग करना चाहिए।


सत्ताधारी की दृष्टि में अपना सगा बेटा, सगा भाई, एक सामान्य व्यक्ति, कारीगर या मजदूर सब एक से होने चाहिए।


व्यक्तिगत जीवन इतना सादा होना चाहिए कि लोगों पर उसका प्रभाव पड़े। उन्हें हर रोज देश के लिए एक घंटा शारीरिक श्रम करना चाहिए। या तो चरखा कातें या साग-सब्जी लगाना चाहिए।


मोटर और बंगला तो होना ही नहीं चाहिए। आवश्यकता के अनुसार साधारण मकान का उपयोग करना चाहिए। हां, यदि दूर जाना हो या किसी खास काम से जाना हो तो जरूर मोटर काम में ले सकते हैं। लेकिन मोटर का उपयोग मर्यादित होना चाहिए। मोटर की थोड़ी बहुत जरूरत तो कभी न कभी रहेगी ही।


घर के दूसरे भाई-बहन घर में हाथ से ही काम करें। नौकरों का उपयोग कम से कम होना चाहिए।


सोफा सेट, आलमारियां या चमकीली कुर्सियां बैठने के लिए नहीं रखनी चाहिए।


मंत्रियों को किसी प्रकार का व्यवसन तो होना ही नहीं चाहिए।


प्रत्येक मंत्री के बंगले के आसपास आजकल तो छह या इससे अधिक सिपाहियों का पहरा रहता है वह अहिंसक मंत्रिमंडल को बेहूदा लगना चाहिए।


इसी समय उन्होंने यह भी कहा था कि, लेकिन मेरे इन सब विचारों को भला मानता कौन है। फिर भी मुझसे बिना कहे रहा भी नहीं जाता क्योकि चुपचाप देखते रहने की मेरी इच्छा नहीं है।


अब बापू की बात तो हम सबने सुन ली पर सच बापू भी जानते थे- हम भी जानते हैं और आप भी। तो आइए भूल जाते हैं बापू के इन सपनों को और जमकर मनाते हैं एक बार फिर लोकतंत्र का जश्न।

Sunday 22 March, 2009

समय का पहिया


बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे

घूमता रहता है- समय का पहिया।

वह चलता रहता है- अनवरत

वक्त के लिए जरूरी है उसका घूमना।

समय से भी तेज होती है शायद

कई बार हमारे घूमने की गति।

पर...

वक्त को कहां फर्क पड़ता है इन बातों से।

वक्त चलता रहता है

हम भी चलते रहते हैं।

कई बार हमें भ्रम हो जाता है

वक्त से आगे निकल जाने का।

फिर देखते हैं रूककर

वक्त खामोशी से निकल गया बिल्कुल पास से।

हम खड़े रह गए किसी किनारे में।

पर...

वक्त को कहां फर्क पड़ता है इन बातों से।

Thursday 19 February, 2009

जरा उस्ताद जी की बात तो सुनिए..


पिछले दिन महान सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान जी का चंडीगढ़ आगमन हुआ। इस दौरान इस शख्सियत से हमारी हुई और हमने उनसे आराम से ढेर सारी बातें की । बातें बड़े काम की, बड़े मतलब की हैं। जरा आप भी गौर फरमाइए...। उनसे मेरी यह बातचीत हिंदी दैनिक अमर उजाला में प्रकाशित हो चुकी है।

'दुनिया के समक्ष नित नई चुनौतियां दस्तक दे रही हैं। मंदी, आतंकवाद और बेरोजगारी...। विश्वास है कि हम इन सब पर पार पा लेंगे। हमारे युवाओं में तो असीम शक्ति है। हां, देश का राजनीतिक नेतृत्व दिशाहीन जरूर है पर युवाओं की शक्ति पर यकीन करता हूं। संभावनाओं से लबरेज युवाओं को सलाम करता हूं। यह कहना है प्रख्यात सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान का। चंडीगढ़ के होटल ताज में वे अमर उजाला से विशेष बातचीत कर रहे थे।

उस्ताद जी ने कहा, 'चुनौतियां हैं। रहनी भी चाहिए। व्यक्ति के विकास और क्षमताओं के भरपूर दोहन के लिए ये बातें जरूरी हैं। आज के युवाओं को बहुआयामी होना होगा। मंदी और बेरोजगारी की समस्या सिर्फ इसीलिए हैं कि उन्हें शायद अपनी क्षमता का एहसास नहीं। कई क्षेत्र में युवाओं ने बेहतर काम किया है, कर रहे हैं। उनके ये काम एक दिन इतिहास के पन्ने बनेंगे।

उस्ताद जी के बेटे अमान और अयान का जिक्र हुआ तो बोल पड़े, 'वे दोनों कुछ-कुछ नया करते रहते हैं। मेरा साथ भी देते हैं, माडलिंग भी करते हैं, एंकरिंग भी कर लेते हैं। आजकल एक फिल्म में हीरो बनने में व्यस्त हैं। मैं उन पर कभी अपनी बात नहीं थोपता। उन्हें अपनी क्षमता के मुताबिक नए प्रयोग की पूरी छूट दी है। ऊपर वाले की कृपा से ठीक कर रहे हैं। युवाओं को ऐसा होना भी चाहिए। उनमें असीम संभावनाएं हैं।

आतंकवाद का जिक्र करते हुए खान साहब कहते हैं, 'चंद भ्रमित लोगों ने पूरी दुनिया का सत्यानाश कर रखा है। यह सब पैसे की भूख और कुछ धर्म के नाम पर दुकानदारी करने वालों की शरारत भर है। हम इसकी गंभीर कीमत चुका रहे हैं।इसी बहाने वे मुंबई कांड का जिक्र करना भी नहीं भूले। कहा, 'महाराष्ट्र में अलग-अलग आइडियालाजी की लड़ाई लडऩे वाले संकीर्ण सोच के लोगों को मुंबई कांड ने एक संदेश दिया है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में साथ-साथ रहना होगा। यह संदेश है एकजुटता का। देश की हर समस्या का समाधान हो सकता है पर जरूरत है एक गांधी की। बिना गांधी के बात नहीं बनेगी।

सवालिया लहजे में एक बात समझाते हैं। कहते हैं, 'एक बात बताइए? जब उसने (अल्लाह या भगवान जो भी कह लें) इस दुनिया में आने-जाने का तरीका एक सा रखा है तो कहीं न कहीं सब एक ही हैं। यह अलग-अलग की लड़ाई सिर्फ संकीर्ण स्वार्थ के लिए है।उन्होंने कहा, 'मैं तभी हूं जब मेरे साथ सरोद है। क्या आप जानते हैं मेरा सरोद कौन बनाते हैं? नाम है- हेमेन्द्र चंद्र सेन। कोलकाता में रहते हैं। नाम पर मत जाइए- धोखा हो जाएगा। यह धोखा हमारी संकीर्णता से पैदा होता है। न तो सरोद से मैं अलग हो सकता हूं और न ही हेमेन्द्र को माइनस करने की सोच सकता हूं। हमें जीवन के इस दर्शन को सीखना होगा। यही सच्चे जीवन की राह है।

देश की राजनीतिक व्यवस्था पर भी खान साहब स्पष्ट विचार रखते हैं। वे कहते हैं, 'मुझे चिढ़ होती है जब मैं शाइनिंग इंडिया जैसे नारे सुनता हूं। खेल के नाम पर पैसा बहाया जा रहा है पर सरकार संगीत के लिए कुछ खास नहीं कर रही है। आपको यह जानकर शायद आश्चर्य होगा कि राजधानी दिल्ली में संगीत के आयोजन की दृष्टि से कोई बेहतर हॉल नहीं है। लंदन का अलबर्ट हॉल, रायल फेस्टिवल, वाशिंगटन का कैनेडी सेंटर, सिडनी का ओपेरा हाउस आदि ऐसे स्थान हैं, जहां परफार्म करना एक बेहतर अनुभव देता है। हमारे यहां कोई ऐसी जगह है ही नहीं।आजकल टीवी पर रियलिटी शो पर भी उस्ताद जी तीखी प्रतिकि्रया व्यक्त करते हैं। कहते हैं, 'यह सब ठीक नहीं हो रहा है। नए जमाने के टीवी वाले गुरु जी भी बड़े अजब-गजब से हैं। गुरु और शिष्य के बीच जिस तरह के संवाद होते हैं उसे देखकर बड़ा अजीब महसूस होता है। निश्चित रूप से ऐसे आयोजन प्रतिभाओं को एक प्लेटफार्म तो देते हैं पर विनर शो खत्म होते ही हवा हो जाता है। ऐसे आयोजन घराने और गुरु-शिष्य जैसे शब्द की गंभीरता खत्म कर रहे हैं। किसी का नाम नहीं लूंगा पर ऐसे कायॆक्रम में मैंने बड़े बदतमीज गुरुओं को भी देखा है।

आगे कहते हैं, 'मुकाम हमेशा संघर्ष से बनता है। इसका कोई शार्टकट नहीं है। आजकल सब फटाफट चाहिए। गुरु भी फटाफट मिल जाते हैं, शिष्य को भी फटाफट तैयार कर देते हैं- ऐसा नहीं होता। यह एक लंबी प्रक्रिया है। मैंने बारह साल की उम्र से दुनिया की यात्रा की है। रेल के रिजर्वेशन क्लास से लेकर जनरल डिब्बे तक में यात्रा की। एक प्रक्रिया से गुजरा हूं। संगीत तो खून में था पर कठिन तप से तराशा गया हूं। आज आपके सामने हूं।

Wednesday 11 February, 2009

इंतजार

आने से पहले उसके इंतजार में थी आंखें,
आई वो इस तरह कि पता भी न चला।

Thursday 22 January, 2009

अपेक्षा बहुत कुछ सिखाती है...


यह एक बेहतरीन सामग्री है। हमने सोचा आप सब भी पढ़े। यह पत्र अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने पुत्र के शिक्षक के नाम लिखा था। जरा देखिए एक पिता की अपेक्षा कि वह अपने पुत्र को कैसे सींचना चाहता है। यह सामग्री पथप्रदर्शक सिद्ध हो सकती है। हे शिक्षक! मैं जानता हूं कि उसे सीखना है यह कि सभी लोग न्यायप्रिय नहीं होते, सभी लोग अच्छे नहीं होते। किंतु उसे यह भी सिखाएं कि जहां बदमाश होते हैं वहां एक नायक भी होता है। यह कि हर स्वार्थी नेता के जवाब में एक समर्पित नेता भी होता है। उसे बताइए कि जहां एक दुश्मन होता है वहां एक दोस्त भी होता है। अगर आप कर सकते हैं तो उसे ईष्र्या से बाहर निकालें, उसे खामोश हंसी का रहस्य बताएं। उसे यह सीखने दें कि गुंडई करने वाले बहुत जल्द चरण स्पर्श करते हैं। अगर पढ़ा सकें तो उसे किताबों के आश्चर्य के बारे में पढ़ाएं लेकिन उसे इतना समय भी दें कि वह आसमान में उड़ती चिडिय़ां के, धूप में उड़ती मधुमक्खियों के और हरे पर्वतों पर खिले फूलों के शाश्वत रहस्यों के बारे में सोच सके। उसे स्कूल में यह भी सिखाएं कि नकल करने से ज्यादा सम्मानजनक है फेल हो जाना। उसे अपने विचार में विश्वास करना सिखाएं तब भी जब सभी उसे गलत बताएं। उसे विनम्र व्यक्ति से विनम्र और कठोर व्यक्ति से कठोर व्यवहार करना सिखाएं। मेरे बेटे को ऐसी ताकत दें कि वह भीड़ का हिस्सा न बने जहां हर कोई खेमे में शामिल होने में लगा है। उसे सिखाएं कि वह सबकी सुने लेकिन उसे यह भी सिखाएं कि वह जो कुछ भी सुने उसे अच्छाई की छननी पर छाने और उसके बाद जो अच्छी चीज बचे उसे ही ग्रहण करे। अगर आप उसे सिखा सकते हैं तो सिखाएं कि जब दुखी हों तो कैसे वह हंस सके, उसे सिखाएं कि आंसू आना शर्म की बात नहीं होती। उसे सिखाएं कि निंदकों का कैसे मजाक उड़ाया जाए और ज्यादा मिठास से कैसे सावधान रहा जाए। उसे सिखाएं कि अपनी बल और बुद्धि को ऊंचे से ऊंचे दाम पर बेचे पर अपने हृदय और आत्मा का सौदा कभी न करे। उसे सिखाएं कि एक चीखती भीड़ के आगे अपने कान बंद कर ले और अगर वह अपने को सही समझता है तो उठकर लड़े। लोगों से विनम्रता से तो पेश आए पर छाती से न लगाए। उसमें साहस आने दें, उसे अधीर बनने दें- उसमें बहादुर बनने का धैर्य आने दें। उसे सिखाएं कि वह अपने में गहरा विश्वास रखे क्योंकि तभी वह मानव जाति में विश्वास रखेगा। यह मेरी एक बड़ी फरमाइश है। पर देखिए कि आप क्या कर सकते हैं क्योंकि यह छोटा बच्चा मेरा बेटा है। (फोटो गूगल से साभार)

Monday 19 January, 2009

फैसला

न्यायाधीश भी मैं हूं,
फैसला भी मुझे देना है।
चाहकर भी नहीं कह पाता,
बाइज्जत बरी िकया जाता है।

Thursday 15 January, 2009

आदत

वो कहती है कभी नहीं देखूंगी अब तेरा चेहरा,
िछप-िछपकर देखने की आदत जो रही है।

चूक

उसने शब्दों को िजया, पढ़ी खूब िकताबें,
बस िजंदगी को जीने में चूक कर गया।

Wednesday 14 January, 2009

सैलाब


उन तसवीरों पर

इक परत सी पड़ गई है।

मेरे और उसके बीच

एक चौड़ी दीवार भी खड़ी है।

तसवीर भी सच है

और...

दीवार भी।

सच तो

आंखों का सैलाब भी है...।

Monday 12 January, 2009

एेसा क्यों है?

कुछ िलखने का मन नहीं कर रहा था। बस... कंप्यूटर के कमांड्स चलते जा रहे थे। मन कुछ सोच ही नहीं रहा था। कई बार एेसा होता है िक हमारा कुछ करने का मन नहीं होता। ... लेिकन हम करते हैं। क्यूं करते हैं... पता नहीं। न तो इस तरह से कुछ करने का कोई अथॆ होता है और न ही इसका नतीजों से कोई खास सरोकार होता है। बस यूं हीं...।
हमारे जीवन में ज्यादा चीजें बेमन से ही होती हैं शायद। बस हम िकए जाते हैं। क्या साथॆकता की सोचे बगैर इस तरह के कृत्य का कोई अथॆ होता है? अगर नहीं तो एेसा क्यों है? िकताब में पढ़ी चीजों या बातों से अगर िजंदगी तलाशी जाए तो क्या वाकई जीना मुिश्कल हो जाता है? एेसी मुिश्कल से िनकलने का क्या यही रास्ता है िक हम बस यूं ही सब कुछ िकए जाएं? यूं ही िजए जाएं? इसका सवाल का जवाब िमल जाए तो मुिश्कल थोड़ी हल हो जाए।

Sunday 11 January, 2009

वक्त

िजनकी िकलकािरयों में कभी शब्द ढूंढा करते थे,
आजकल उनके हंसने की वजह बन गए हैं हम।

Monday 5 January, 2009

पतवार

िजन पतवारों के संग पार होनी थी नाव,
उनका तो िकनारों से कोई िरश्ता ही न था।

Saturday 3 January, 2009

मोड़

वह आज भी िमली थी उसी मोड़ पर,
उस मोड़ पर ही उसने दुिनया बसा ली है।

खुदा

कभी खुदा अगर मुझे िमल जाए कहीं
तो पूछूंगा...
मुझे भेजा था यहां इसी काम के िलए?

Thursday 1 January, 2009

दाग

एे चांद हमने देखा है तुम्हारे चेहरे का दाग,
कभी फुसॆत हो तो आईने में चेहरा देख जाना।