Sunday, 17 May 2009

चलो चलते हैं...


आओ...

चलो चलते हैं।

फिर से

उसी नदी के किनारे,

जहां बुने थे

हमने

अपने लिए कुछ सपने।

वो सपने

जो नहीं हुए पूरे,

शायद

होने भी नहीं थे।

मैं फेंकता था

पत्थर

और

कहता था तुम्हें...

वो देखो...

मैं दिखाता था

तुम्हें

पानी में बनते वलय

और

तुम देखा करती थी

उनका गुम हो जाना...।

3 comments:

निर्मला कपिला said...

sunder abhivyakti hai shubhkamnayen

वीनस केसरी said...

सुन्दर अभिव्यक्ति

वीनस केसरी

rajiv said...

in lines se to lagata hai ki aap ko bhi kabhi kisi se isshq hua tha