Tuesday, 21 April 2009

हमारे जीवन का पारसमणि

कई बार जब आप अपने जीवन को गौर से देखेंगे तो बड़े अजीब से अनुभवों के रास्ते से गुजर रहे होंगे। जब आप अपनी यात्रा और उपलब्धियों का हिसाब-किताब करेंगे तो शायद आप बेचैन हो जाएं। इस तरह की बात जीवन के पारसमणि से दूर रहने की वजह से होती है। यह बेचैनी पारसमणि को न पा सकने की सोच के कोख से पैदा होती है। बस कई बार शायद पर्याप्त उद्यम के अभाव में हम चूक जाते हैं।
पाओलो कोएलो की लिखित पुस्तक अलकेमिस्ट में बड़े सुंदर तरीके से यह बात समझाई गई है। इस पुस्तक में मेल्विजेडेक नाम का एक पात्र है।
सेंटियागो नाम के गड़ेरिये से संवाद के क्रम में वह एक कहानी सुनाता हैः- अभी पिछले हफ्ते मुझे एक खान मजदूर के सामने जाना पड़ा, एक पत्थर के रूप में। वह मजदूर अपना सब कुछ छोड़कर पारसमणि जैसे रत्न की खोज में निकल पड़ा था। पूरे पांच साल तक उसने पत्थरों को खोदा, उलट-पलटकर देखा, मगर उसे रत्न नहीं मिला। तब एक वक्त आया कि उसने पारसमणि की तलाश छोड़ देने का इरादा लिया। और वह भी उस समय जब वह मात्र एक पत्थर को उठाकर देखता तो उसे बेशकीमती रत्न मिल जाता। बेहद करीब आकर उसका धैर्य जवाब दे गया। चूंकि वह मजदूर अपना सब कुछ त्याग करके आया था सो मैंने एक पत्थर का रूप धारण किया और लुढ़कता हुआ उसके पैरों से जा टकराया। वह मजदूर विफलता से परेशान हो चुका था सो उसने उस पत्थर को उठाया और दूर फेंक दिया। एक अन्य पत्थर से टकराकर वह टूट गया और बीच से निकला दुनिया का सबसे खूबसूरत रत्न- पारसमणि।
इस कहानी का जिक्र सिर्फ इसलिए कि हम सबके जीवन में पाससमणि है। जीवन की सार्थकता, उसकी पूर्णता... पासमणि से ही है। जीवन का उद्देश्य पारसमणि को पाना ही है। यात्रा चलती रहनी चाहिए। थकना नहीं हैः- पारसमणि जो पाना है। चरैवेति... चरैवेति...।

1 comment:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

जीवन की सार्थकता, उसकी पूर्णता... पासमणि से ही है।

सार्थक बात की आपने