अगर आपका वास्ता ओझा जी से पड़ जाए तो आप उन कुछ खुशनसीब लोगों में शामिल हो जाएंगे जो शायद हंसी के खजाने का रास्ता जानते हैं। मेरा वास्ता ओझा जी से पड़ा है। जो कह रहा हूं वह अल्प समय में उनके साथ रहने का अनुभव है- एक बिंदास इंसान।रिश्ता उनका भी खबरों की दुनिया से ही है और हमारी मुलाकात भी प्रोफेशनल लाइफ के एक मोड़ पर ही हुई थी। आजकल वे आई-नेक्सट अखबार, लखनऊ में जिम्मेदार पद पर कार्यरत हैं।बात उन दिनों की है जब राजीव ओझा जी अमर उजाला चंडीगढ़ से जुड़े हुए थे। दैनिक जागरण में करीब सात साल काम करने के बाद मैं भी अमर उजाला की चंडीगढ़ यूनिट से जुड़ गया था। मैं दफ्तर में नया-नया था। हर तरफ केबिन में संपादकीय विभाग के वरिष्ठ लोग बैठे थे। इनमें से एक केबिन में ओझा जी भी विराजमान थे। दूर से देखने में काफी गंभीर लगते थे। कान में कंप्यूटर से जुड़ा चोंगा (हेड फोन) लगाए रहते थे। उस वक्त मेरा ज्यादा लोगों से परिचय नहीं था सो मैंने सोचा कि सबसे वरिष्ठ और समझदार अधिकारी शायद यही हैं। मैंने इस तरह की बात इसीलिए सोची क्योंकि उनके कान में चोंगा रहता था जो औरों के कान में नहीं था। बाद में जब ओझा जी से दोस्ताना संबंध कायम हो गया तो मैंने एक दिन उन्हें यह किस्सा सुना दिया। वे खूब हंसे और बोल पड़े, क्यों महाराज... मैं समझदार नहीं हूं क्या? यही अंदाज ओझा जी को खास बना देता है। भीड़ से अलग खड़ा कर देता है।जब मैं चंडीगढ़ में नया-नया था और ओझा जी के गैंग में शामिल हो गया तो रोज घड़ी देखकर बारह बजे उनका फोन आ जाता। वे कभी फोन पर कभी मुझे हेलो नहीं कहते थे। कहते थे- कि करय छियै?। मतलब- क्या कर रहे हैं। मैं बिहार का मैथिल ब्राह्मण हूं। मैथिली के राज से परदा हटाते हुए ओझा जी ने बताया कि छात्र जीवन या शायद शुरूआती व्यावसायिक जीवन में उनका कोई मैथिल मित्र था जिससे उन्होंने मैथिली सीखी थी। जहां तक मैं समझ सका कि मैथिली के नाम पर उनकी कुल जमा पूंजी- कि करय छियै? ही थी। पर किसी के दिल पर दस्तक देने का ओझा जी का अंदाज देखिए। आज भी हमारी बात मैथिली से ही शुरु होकर हिंदी तक पहुंचती है। बहुत दिन तक अगर हमारी बात न हुई हो तो मैं एक मैसेज करता हूं। लिखता हूं- कि करय छियै?। उधर से उनका फोन आता है और पहले तो आधे मिनट खूब हंसते हैं। फिर बात होती है।हां, तो बात हो रही थी बारह बजे ओझा जी के आने वाले फोन की। उनके फोन के बाद मैं तत्काल आफिस पहुंच जाता था। इसके बाद हम निकल पड़ते किसी गली- किसी मोड़ पर चाय पीने। इसी दौरान देश-समाज की बात होती रहती। कई बार हम अनजाने रास्तों पर भी निकल पड़ते थे। एक बार हम मोरनी जा रहे थे। रास्ता पहाड़ वाला सर्पीला था। वे मेरी मोटरसाइकिल के पीछे बैठे थे। रास्ते में अगल-बगल बंदरों का झुंड मिल जाया करता था। वे जब भी किसी बंदर को देखते तो बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह उसे छेड़ दिया करते थे। मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं अगर बंदरों ने झपट्टा मार दिया तो? ओझा जी ने मुझसे पूछा, क्यों महाराज डरते हैं का? हमने कहा, अगर बंदरों के झुंड ने हमला कर दिया तो? अब ओझा जी भी हमसे सहमत हो गए थे। कहा, हां महाराज ई तो ठीक्के कहते हैं।भावनाओं पर भी भूगोल हावी हो जाता है जनाब...। काश... लखनऊ पास होता।
Thursday, 23 April 2009
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3 comments:
भाई! संसधनों पर चाहे कोई कितना भी हक़ जता ले, पर सुखों पर किसी का बस थोड़े है. ओझा जी जैसे लोग ही जीवन का मर्म जानते हैं.
अहां की करई छियो. राजेश जी इतना भी मत चढ़ाइए. वैसे आपके साथ की खुशनुमा यादें ताजा हैं. बाकी आपका स्नेह बना रहे बस.
aapko or ojha ji ko hum bhi nahi bhule hain ranjan ji. waise ojha ji ke baarey me khub kahi. we hai hi aise
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