कुछ िलखने का मन नहीं कर रहा था। बस... कंप्यूटर के कमांड्स चलते जा रहे थे। मन कुछ सोच ही नहीं रहा था। कई बार एेसा होता है िक हमारा कुछ करने का मन नहीं होता। ... लेिकन हम करते हैं। क्यूं करते हैं... पता नहीं। न तो इस तरह से कुछ करने का कोई अथॆ होता है और न ही इसका नतीजों से कोई खास सरोकार होता है। बस यूं हीं...।
हमारे जीवन में ज्यादा चीजें बेमन से ही होती हैं शायद। बस हम िकए जाते हैं। क्या साथॆकता की सोचे बगैर इस तरह के कृत्य का कोई अथॆ होता है? अगर नहीं तो एेसा क्यों है? िकताब में पढ़ी चीजों या बातों से अगर िजंदगी तलाशी जाए तो क्या वाकई जीना मुिश्कल हो जाता है? एेसी मुिश्कल से िनकलने का क्या यही रास्ता है िक हम बस यूं ही सब कुछ िकए जाएं? यूं ही िजए जाएं? इसका सवाल का जवाब िमल जाए तो मुिश्कल थोड़ी हल हो जाए।
Monday, 12 January 2009
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3 comments:
इस दुनिया में आने के बाद कुछ कार्यों को करना हमारी मजबूरी भी हो सकती है.....पर जब करना ही है , तो फिर रोकर क्यो ? हंसकर क्यों न करें!
आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. कभी हमारे सामूहिक प्रयास 'युवा' को भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें प्रोत्साहित करें !!
jimmedarino se bachne k liye majburia insan khud banata hae...
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